Sunday, March 8, 2009

गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय घोटुल

गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय घोटुल

हरिहर वैष्णव



इसे बस्तर का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कि, जाने-समझे बिना इसकी संस्कृति, विशेषत: आदिवासी संस्कृति, के विषय में, जिसके जो मन में आये कह दिया जाता रहा है। गोंड जनजाति, विशेषत: इस जनजाति की मुरिया शाखा में प्रचलित 'घोटुल` संस्था के विषय में मानव विज्ञानी वेरियर एल्विन से ले कर आज तक विभिन्न लोगों ने अपने अल्पज्ञान अथवा अज्ञान के चलते अनाप-शनाप कह डाला है। और यह अनाप-शनाप इसीलिये कहा जाता रहा है योंकि आदिवासी संस्कृति के तथाकथित जानकारों ने इस संस्था के मर्म को जाना ही नहीं। न तो वे इसके इतिहास से भिज्ञ रहे हैं और न ही इसकी कार्य-प्रणाली से। अधिकांश ऐसे लोग हैं जिन्होंने वेरियर एल्विन और ग्रियर्सन के लिखे को ही अन्तिम सत्य मान लिया और उन्हीं की दुहाई दे-दे कर घोटुल जैसी पवित्र संस्था पर कीचड़ उछालने में लगे रहे। उन्होंने इसकी सत्यता जानने का कोई प्रयास ही नहीं किया। यदि प्रयास करते तो जान पाते कि घोटुल वह नहीं जो वे अब तक समझते रहे हैं। घोटुल तो गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय है, समाज-शिक्षा का मन्दिर है, लिंगो पेन यानी लिंगो देवता की आराधना का पवित्र स्थल है। 'लिंगो` पेन घोटुल के संस्थापक और नियामक रहे हैं। गोंड समाज के प्रमुखों के अनुसार लिंगो देव को ही हल्बी परिवेश में बू़ढा देव तथा छत्तीसगढ़ी परिवेश में बड़ा देव सम्बोधित किया जाता है। और ये बू़ढा देव, बड़ा देव या लिंगो पेन भगवान शिव (नटराज) के ही अवतार या अंग माने जाते हैं।




गोंड समुदाय से सम्बद्घ पालकी (नारायणपुर) निवासी रमो-चन्द्र दुग्गा (सम्प्रति : सहायक वन संरक्षक, वन विभाग, छत्तीसगढ़) कहते हैं, 'हमारे समाज में यह विश्वास है कि घोटुल की परम्परा का सूत्रपात तथा वाद्यऱ्यन्त्रों की रचना भी लिंगो द्वारा ही की गयी है। सारे नियम व रीति-रिवाज लिंगो द्वारा ही बनाये गये हैं। इन्हें आगे चल कर लिंगो पेन यानी लिंगो देवता के रूप में जाना और माना गया। बेठिया प्रथा का बस्तर में चलन है। इस प्रथा के अन्तर्गत गाँव के लोग जरुरतमंद व्यि त के घर का बड़ा-से-बड़ा कार्य बिना किसी मेहनताना लिए करते हैं। घोटुल में यही भावना निहित होती।` आज भी घोटुल की परम्परा, नियम व रीति-रिवाजों का पालन किया जा रहा है अत: घोटुल को गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय कहा जाना चाहिये।

गढ़बेंगाल (नारायणपुर) निवासी सुप्रसिद्घ काष्ठ शिल्पी पण्डीराम मण्डावी कहते हैं, 'घोटुल में हम लोग आपसी भाई-चारे की शिक्षा ग्रहण करते हैं। हम तो आदिवासी हैं। बड़ी-बड़ी बातें नहीं जानते किन्तु हमें अपनी परम्पराओं से लगाव है। हो सकता है कि हमारी परम्पराएँ दूसरों को ठीक न लगती हों। मैं तथाकथित ऊँचे लोगों की तुलना में अपने समाज को अच्छा समझता हूँ। कारण, हमारे समाज में बलात्कार नहीं होता। दूसरी बात, घोटुल से हमारे समाज को कई फायदे हैं, जब कभी समाज या परिवार में कोई काम होता है, घोटुल के सारे सदस्य मिल-जुल कर उसे पूरा करते हैं। चाहे वह सुख हो या दु:ख। मसलन, आज हमारे लड़के का विवाह करना है तब हम घोटुल के सदस्यों को कुछ भेंट दे कर उन्हें बताते हैं कि आठ-दस या पन्द्रह दिनों बाद मेरे घर में विवाह है। यह सूचना पा कर घोटुल की सारी लड़कियाँ पत्ते तोडेंगी, लड़के लकड़ी लायेंगे, नाचेंगे, गायेंगे, खाना बनायेंगे। इसी तरह, यदि किसी के घर में मृत्यु हो गयी हो या विपत्ति आ गयी हो तो भी घोटुल के सदस्य हमारे काम आते हैं। एक गाँव से दूसरे गाँव तक सूचना भेजने का साधन हमारे पास नहीं है, हमारे पास फोन नहीं है। हमारे कुटुम्बी दूर दराज के गाँवों में रहते हैं। तब ऐसे समय में घोटुल के सब लड़के सायकिल ले कर या पैदल खबर देने जाते हैं। तो मेरे हिसाब से घोटुल का बना रहना समाज के हित में है। यहाँ सहकार की भावना काम करती है।`

नयी पीढ़ी द्वारा घोटुल प्रथा पर उठायी जा रही आपत्ति के विषय में पण्डीराम कहते हैं, 'कई लोग घोटुल प्रथा पर आपत्ति कर रहे हैं। नयी पीढ़ी के लोग कह रहे हैं कि घोटुल प्रथा से हमें लज्जा आने लगी है। इसीलिये इसे बन्द कर दिया जाना चाहिये। किन्तु मेरा कहना है कि इसमें शर्म किस बात की? बड़े-बड़े शहरों में कितनी नंगाई होती है। उन्हें कोई नहीं देखता। रात में नाचते हैं, गाते हैं। हमारा आदिवासी भाई एक पौधे के आड़ में जा कर मूत्र विसर्जन करता है किन्तु शहर में तो लोग कहीं भी मूत्र विसर्जन कर देते हैं जबकि वहाँ लोगों की भीड़ रहती है किसी मेले की तरह। किन्तु वहाँ लोगों को एक-दूसरे का ख्याल नहीं होता।`

क्या होता है घोटुल में?


घोटुल को आरम्भ से ही एक प्रभावी और सर्वमान्य सामाजिक संस्था के रूप में मान्यता मिलती रही है। इसे एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता रहा है, जिसकी भूमिका गोंड जनजाति की मुरिया शाखा को संगठित करने में प्रभावी रहा है। यों तो मोटे तौर पर घोटुल मनोरंजन का केन्द्र रहा है, जिसमें प्रत्येक रात्रि नृत्य, गीत गायन, कथा-वाचन एवं विभिन्न तरह के खेल खेले जाते हैं। किन्तु मनोरंजन प्रमुख नहीं अपितु गौण होता है । प्रमुखत: यह संस्था सामाजिक सरोकारों से जु़डी होती है।


वे सामाजिक सरोकार क्‍या हैं:

1.
संगठन की भावना को बल दिया जाता है।

2.
गाँव के सामाजिक कार्य (विवाह, मृत्यु, निर्माण-कार्य आदि) में श्रमदान किया जाता है।

3.
युवकऱ्युवतियों को सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की शिक्षा दी जाती है।

4.
भावी वर-वधू को विवाह-पूर्व सीख दी जाती है।

5.
हस्त-कलाओं का ज्ञान कराया जाता है।

6.
गाँव में आयी किसी विपत्ति का सामना एकजुट हो कर किया जाता है।।

7.
वाचिक परम्परा का नित्य प्रसार किया जाता है।

8.
अनुशासित जीवन जीने की सीख दी जाती है।

घोटुल के नियम?


घोटुल के नियम अलिखित किन्तु कठोर और सर्वमान्य होते हैं। विवाहितों को घोटुल के आन्तरिक क्रिया-कलाप में भागीदारी की अनुमति, विशेेष अवसरों को छाे़ड कर, प्राय: नहीं होती। इन नियमों को संक्षेप में इस तरह देखा जा सकता है :

1.
प्रत्येक चेलिक को प्रतिदिन लकड़ी लाना आवश्यक है।

2.
मोटियारिन के लिये पनेया (एक तरह का कंघा) बना कर देना आवश्यक है।

3.
अपने वरिष्ठों का सम्मान करना तथा कनिष्ठों के प्रति सदय होना आवश्यक है।

4.
संस्था के पदाधिकारियों द्वारा दिये गये कार्य को सम्पन्न करना आवश्यक है।

5.
मोटियारिनों के लिये आवश्यक है कि वे घोटुल के भीतर तथा बाहर साफ-सफाई रखें।

6.
गाँव के किसी भी काम में घोटुल की सहमति से सहायक होना आवश्यक है।

7.
घोटुल तथा गाँव में शान्ति बनाये रखने में सहयोगी होना आवश्यक है।

नियमों के उल्लंघन पर दण्ड का प्रावधान?

घोटुल के नियमों का उल्लंघन होने पर दोषी को दण्ड का भागी होना पड़ता है। घोटुल के नियमों का पालन नहीं करने वाले को उसकी त्रुटि के अनुरूप लघु या दीर्घ दंड दिये जाने का प्रावधान होता है। छोटी और बड़ी सजा के कुछ उदाहरण :

1. छोटी सजा :

घोटुल के तयशुदा कर्त्तव्यों का पालन नहीं करना दोषी को प्राय: छोटी सजा का हकदार बनाता है। उदाहरण के तौर पर, लकड़ी ले कर न आना। सभी सदस्य युवकों के लिये आवश्यक होता है कि वे घोटुल में प्रतिदिन कम से कम एक जलाऊ लकड़ी ले कर आयें। यदि कोई सदस्य इसमें चूक कर जाता है तब उसे छोटी सजा दी जाती है। छोटी सजा के कुछ उदाहरण:

1. अ. आर्थिक दण्ड :
छोटी सजा के रुप में प्राय: पाँच से दस रुपये तक के आर्थिक दण्ड का प्रावधान है।

किन्तु यदि दोषी चेलिक आर्थिक दण्ड भुगतने की स्थिति में न हो तो उसे शारीरिक दण्ड भोगना पड़ता है। किन्तु चूक यदि कुछ अधिक ही हो गयी हो तो उसे आर्थिक और शारीरिक दोनों ही तरह के दण्ड भुगतने पड़ सकते हैं।

1. ब. शारीरिक दण्ड :
शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत बेंट सजा दिये जाने का प्रावधान होता है। बेंट सजा के अन्तर्गत दोषी चेलिक को उकड़ूँ बिठा कर उसके दोनों घुटनों और कोहनियों के बीच एक मोटी सी गोल लकड़ी डाल दी जाती है। इसके बाद उस पर कपड़े को ऐंठ कर बनायी गयी बेंट से उसकी देह पर प्रहार किया जाता है। कई दूसरे प्रकार के शारीरिक दण्डों का भी प्रावधान होता है। मोटियारिनों के लिये अलग किस्म के दण्ड का प्रावधान होता है। उदाहरण के लिये यदि किसी मोटियारिन ने साफ-सफाई के काम में अपनी साथिन का सही ढंग से साथ नहीं दिया तो उसे साफ-सफाई का काम अकेले ही निपटाना पड़ता है।

1. स. प्रतिबन्धात्मक दण्ड :
त्रुटियों की पुनरावृत्ति अथवा पदाधिकारियों के आदेश की अवहेलना अथवा लापरवाही की परिणति प्रतिबन्धात्मक दंड के रूप में होती है। इस दण्ड के अन्तर्गत दोषी पर कुछ दिनों के लिये घोटुल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है।

2. बड़ी सजा :

बड़ी चूक हो तो दोषी को घोटुल से निष्कासित कर उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। ऐसे चेलिक/ मोटियारी के घर-परिवार में होने वाले किसी भी कार्य में घोटुल के सदस्य सहयोग नहीं करते।

इस तरह के कठोर नियमों के कारण घोटुल के नियमों की अनदेखी करने की हिम्मत प्राय: कोई नहीं करता। हँसी-ठिठोली उसी तरह के रिश्ते में आने वाले लड़के और लड़की के बीच ही सम्भव है, जिनके बीच हँसी-ठिठोली को सामाजिक मान्यता मिली हुई है। किन्तु हँसी-मजाक के आगे सीमा का उल्लंघन करने की अनुमति उन्हें भी नहीं होती। यदि घोटुल के किसी युवकऱ्युवती के बीच घोटुल में या घोटुल के बाहर गलती से भी अनैतिक सम्बन्ध होने की पुष्टि हो जाती है तो उन्हें घोटुल एवं समाज के नियमों के मुताबिक दण्ड का भागी होना पड़ता है। सबसे पहला दण्ड होता है उनका घोटुल से निष्कासन। इसके बाद समाज की बैठक में उन पर निर्णय लिया जाता है। सामाजिक नियमों के अन्तर्गत विवाह-बन्धन के योग्य माने जाने पर उनका विवाह करा दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि घोटुल के नियमों के तहत दिये गये दण्ड के विरूद्घ प्राय: कोई सुनवाई नहीं होती।

संस्था का संचालन


इस संस्था के संचालन के लिये विभिन्न अधिकारी होते हैं, जिनके अधिकार एवं कर्त्तव्य निचित और भिन्न-भिन्न होते हैं। ये अधिकारी अलग-अलग विभागों के प्रमुख होते हैं। इन अधिकारियों के सहायक भी हुआ करते हैं। ये अधिकारी हैं कोटवार, तसिलदार (तहसीलदार), दफेदार, मुकवान, पटेल, देवान (दीवान), हवलदार, कानिसबिल (कॉन्स्टेबल), दुलोसा, बेलोसा, अतकरी, बुदकरी आदि। प्राय: दीवान ही संस्था का सांवैधानिक प्रमुख हुआ करता है। इन अधिकारियों के अधिकारों को घोटुल के बाहर चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके साथ ही यदि किसी अधिकारी द्वारा अपने कर्त्तव्य-पालन में किसी भी तरह की चूक हुई तो उसे भी घोटुल-प्रशासन दण्डित करने से नहीं चूकता। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यहाँ घोटुल-प्राासन की तानाशाही चलती हो। पूरे प्रजातान्त्रिक ढंग से यहाँ का प्रशासन चलता है और बहुत ही कायदे से चलता है।

कौन थे घोटुल के


प्रणेता लिंगो पेन ?

'
घोटुल` नामक इस संस्था के प्रणेता के रूप में जाने जाने वाले लिंगो पेन के विषय में गोंड समुदाय से सम्बद्घ पालकी (नारायणपुर) निवासी रमो चन्द्र दुग्गा एक मिथ कथा बताते हैं:



बहुत पहले की बात है। वर्तमान नारायणपुर जिले में रावघाट की पहाड़ियों की जो श्रृंखला है, उसी क्षेत्र में कभी सात भाई रहा करते थे। वह क्षेत्र 'दुगान हूर ` के नाम से जाना जाता था। उन सात भाइयों में सबसे छोटे भाई का नाम था 'लिंगो`। अपने छहों भाइयों की तुलना लिंगो शारीरिक, बौदि्घक, आदि सभी दृष्टि से बड़ा ही शि तााली और गुणी था। कहते हैं वह एक साथ बारह प्रकार के वाद्ययंत्र समान रूप से बजाता लेता था। खेत-खलिहान तथा अन्य काम के समय सभी छह भाई सवेरे से अपने- अपने काम में चले जाते थे। छहों भाइयों का विवाह हो चुका था। लिंगो सभी भाइयों का लाड़ला था। न केवल भाइयों का बल्कि वह अपनी छहों भाभियों का भी प्यारा था। वह संगीत-कला में निष्णांत तथा विशेषज्ञ था। सुबह उठते ही दैनिक कर्म से निवृत्त हो कर वह संगीत-साधना में जुट जाता। उसकी भाभियाँ उसके संगीत से इतना मन्त्र-मुग्ध हो जाया करती थीं कि वे अपने सारा काम भूल जाती थीं। इस कारण प्राय: उसके भाइयों और भाभियों के बीच तकरार हो जाया करती थी। कारण, न तो वे समय पर भोजन तैयार कर पातीं न अपने पतियों को समय पर खेत-खलिहान में भोजन पहुँचा पातीं। इस कारण छहों भाई लिंगो से भी नाराज रहा करते। वे थक-हार कर जब घर लौटते तो पाते लिंगो संगीत-साधना में जुटा है और उनकी पत्नियाँ मन्त्र-मुग्ध हो कर उसका संगीत सुन रहीं हैं। तब छहों भाइयों ने विचार किया कि यह तो संगीत से अलग हो नहीं सकता और इसके रहते हमारी पत्नियाँ इसके संगीत के मोह से मु त नहीं हो सकतीं। पहले तो लिंगो को समझाया कि वह अपनी संगीत-साधना बन्द कर दे। लेकिन लिंगो चाह कर भी ऐसा न कर सका। तब छहों भाइयों ने तय किया कि यों न इसे मार दिया जाये। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक दिन उन लोगों ने एक योजना बनायी और शिकार करने चले गए। साथ में लिंगो को भी ले गए। जब वे जंगल पहुँचे तो योजनानुसार एक पे़ड की खोह में छुपे 'बरचे` (गिलहरी प्रजाति का गिलहरी से थोडा बड़ा जन्तु। बरचे का रंग भूरा और पूँछ लम्बी होती है। आज भी इसका शिकार बस्तर के वनवासी करते हैं और बड़े चाव के खाते हैं।) को मारने के लिये लिंगो को पे़ड पर चढ़ा दिया और स्वयं उस पे़ड के नीचे तीर-कमान साध कर खड़े हो गये। बहरहाल, लिंगो पे़ड पर चढ़ गया और बरचे को तलाशने लगा। इसी समय इन छहों भाइयों में से एक ने मौका अच्छा जान कर नीचे से तीर चला दिया। तीर लिंगो की बजाय पे़ड की शाख पर जा लगा। पे़ड था बीजा का। तीर लगते ही शाख से बीजा का रस जो लाल रंग का होता है, नीचे टपकने लगा। छहों भाइयों ने सोचा कि तीर लिंगो को ही लगा है और यह खून उसी का है। उन्होंने सोचा कि जब तीर उसे लग ही गया है तो उसका अब जीवित रहना मुश्किल है। ऐसा सोच कर वे वहाँ से तितर-बितर हो कर घर भाग आये। घर आ कर सब ने चैन की साँस ली। उधर लिंगो ने देखा कि उसके भाई पता नहीं यों उसे अकेला छोड कर भाग गये। उसे सन्देह हुआ। वह धीरे-धीरे पे़ड पर से नीचे उतरा और घर की ओर चल पड़ा। कुछ सोच कर उसने पिछले दरवाजे से घर में प्रवेश किया। वहाँ भाई और भाभियों की बातें सुनीं तो उसके रोंगटे खड़े हो गये। लेकिन उसने यह तथ्य किसी को नहीं बताया और चुपके से भीतर आ गया जैसे कि उसने उनकी बातचीत सुनी ही न हो। उसे जीवित देख कर उसके भाईयों को बड़ा आचर्य हुआ। खैर! बात आयी-गयी हो गयी। दिन पहले की ही तरह गुजरने लगे। इस घटना के कुछ ही दिनों बाद उसका भी विवाह कर दिया गया। उसका विवाह एक ऐसे परिवार में हुआ, जिसके परिवार के लोग जादू-टोना जानते थे। उसकी पत्नी भी यह विद्या जानती थी। समय बीतता रहा। उनके परिवार में कभी कोई बच्चा या कभी भाई- भाभी बीमार पड़ते तो हर बार छोटी बहू पर ही शक की सुई जा ठहरती थी, कि वही सब पर जादू- टोना कर रही है। तब छह भाइयों ने छोटे भाई और बहू को घर से बाहर निकालने की सोची। एक दिन लिंगो के भाइयों ने स्पष्ट शब्दों में लिंगो से कह दिया, 'तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की वजह से हम सभी लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अत: तुम लोग न केवल घर छोड कर बल्कि यह परगना छोड कर कहीं अन्यत्र चले जाओ। हम तुम्हें अपनी सम्पत्ति में से कुछ भी हिस्सा नहीं देंगे लेकिन यादगार के तौर पर तुम्हें यह 'मोह्ट` (अँग्रेजी के 'यू` आकार की एक चौडी कील जिससे हल फँसी रहती है। इसे हल्बी परिवश में 'गोली ' कहा जाता है) देते है ।


'
लिंगो उसे ले कर अपनी पत्नी के साथ वहाँ से चल पड़ता है। रास्ते में कन्द-मूल खाते, उस परगने से बाहर जा पहुँचता है। चलते-चलते वे एक गाँव के पास पहुँचते हैं। फागुन-चैत्र महीना था। वहां उसने देखा कि धान की मिजाई करने के बाद निकला ढेर सारा पैरा (पुआल) कोठार (खलिहान) में रखा हुआ था। घर से निकलने के बाद से उन्हें भोजन के रूप में अन्न नसीब नहीं हुआ था। उसे देख कर उसके मन में अशा की किरण जागी और उसने विचार किया कि यों न इसी पैरा को दुबारा मींज कर धान के कुछ दाने इकट्ठे किये जाएं। यह सोच कर उसने उस कोठार वाले किसान से अपना दुखड़ा सुनाया और उस पैरा को मींजने की अनुमति माँगी। उस किसान ने उसकी व्यथा सुन कर उसे मिजाई करने की अनुमति दे दी। उसने गाँव लोगों से निवेदन कर बैल माँगे और उस 'मोह्ट` को उसी स्थान पर स्थापित कर उससे विनती की, कि तुम्हें मेरे भाइयों ने मुझे दिया है। मैं उनका और तुम्हारा सम्मान करते हुए तुम्हारी ईश्वर के समान पूजा करता हूँ। यदि तुममें कोई शि त है, तुम मेरी भि त की लाज रख सकते हो तो इस पैरा से भी मुझे धान मिले अन्यथा मैं तुम्हारे ऊपर मल-मूत्र कर तुम्हें फेंक दूँगा। ऐसा कह उसने मिजाई शुरु की। वह मिजाई करता चला गया। मिजाई समाप्त होने पर न केवल उसने बल्कि गाँव वालों ने भी देखा कि उस पैरा से ढेर सारा धान निकल गया है। सब लोग आश्चर्य चकित हो गये और लिंगो को चमत्कारी पुरुष के रूप में देखने लगे। उसका यथेष्ट सम्मान भी किया। तब लिंगो ने उस 'मोह्ट` की बड़ी ही श्रद्घा-भक्ति पूर्वक पूजा की। उसे कुल देवता मान लिया और पास ही के जंगल में एक झोपड़ी बना कर बस गया।

लिंगो और उसकी पत्नी ने मिल कर काफी मेहनत की। उनकी मेहनत का फल भी उन्हें मिला। जहां उन्होंने अपना घर बनाया था कालान्तर में एक गाँव के रूप में परिर्तित हो गया। समय के साथ लिंगो उस गाँव का ही नहीं बल्कि उस परगने का भी सम्मानित व्यि त बन गया। उस गाँव का नाम हुआ 'वलेक् नार`'वलेक्` यानी सेमल और नार यानी गाँव। हल्बी में सेमल को सेमर कहा जाता है। आज इस गाँव को लोग सेमरगाँव के नाम से जानते हैं।

इस तरह जब उसकी कीर्ति गाँव के बाहर दूसरे गाँवों तक फैली और उसके भाइयों के कानों तक भी यह बात पहुँची। उसकी प्रगति सुन कर उसके भाइयों को बड़ी पीड़ा हुई। वे द्वेष से भर उठे। उन लोगों ने पुन: लिंगो को मार डालने की योजना बनायी और वे सब सेमरगाँव आ पहुँचे। उस समय लिंगो घर पर नहीं था। उन्होंने उसकी पत्नी से पूछा। उसने बताया कि लिंगो काम से दूसरे गाँव गया हुआ है। तब उसके भाई वहाँ से वापस हो गये और अपनी योजना पर अमल करने लगे। उन्होंने 12 बैल गाड़ियों में लकड़ी इकट्ठा की और उसमें आग लगी दी। उनकी योजना थी लिंगो को पकड़ कर लाने और उस आग में झोंक देने की। अभी वे आग लगा कर लिंगो को पकड़ लाने के लिये उसके घर जाने ही वाले थे कि सबने देखा कि लिंगो उसी आग के ऊपर अपने क्त्त् वाद्ययंत्र (1. माँदर, 2. ढुडरा (कोटोड, ठु़डका, कोटोडका), 3. बावँसी (बाँसुरी), 4. माँदरी 5. पराँग, 6. अकुम (तोडी), 7. चिटकोली, 8. गुजरी बड़गा (तिरडुड्डी या झुमका बड़गी या झुमका बड़गा), 9. हुलकी, 10. टुंडोडी (टु़डबु़डी), 11. ढोल, 12. बिरिया ढोल, 13. किरकिचा, 14. कच टेहेंडोर, 15. पक टेहेंडोर, 16. ढुसिर (चिकारा), 17. कीकिड़, 18. सुलु़ड) बजाते हुए नाच रहा है। यह देख कर उन सबको बड़ा आचर्य हुआ। वे थक-हार कर वहाँ से वापस चले गये। वे समझ गये कि लिंगो को मारना सम्भव नहीं।

लिंगो और उनके उन छह भाइयों के नाम का उल्लेख डॉ. के. आर. मण्डावी अपने 'पूस कोलांग परब` शीर्षक लेख (बस्तर की जनजातियों के पेन-परब, 2007 : 79) में कांकेर अंचल के मुरडोंगरी ग्राम के पटेल एवं खण्डा मुदिया (आँगा देव) के पुजारी श्री धीरे सिंह मण्डावी के हवाले से इस तरह किया है : 1. उसप मुदिया, 2. पटवन डोकरा, 3. खण्डा डोकरा, 4. हिड़गिरी डोकरा, 5. कुपार पाट डोकरा, 6. मड़ डोकरा, 7. लिंगो डोकरा। उनके अनुसार लिंगो पेन तथा उनके छह भाई गोंड जनजाति के सात देव गुरु कहे गये हैं।

लेखक परिचय

जन्म: कटेकुम्भ, दन्तेवाड़ा (बस्तर-छत्तीसगढ़), हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर। मूलत: कथाकार एवं कवि। साहित्य की अन्य विधाओं में भी समान लेखन-प्रकाशन। सम्पूर्ण लेखन-कर्म बस्तर पर केन्द्रित। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविता के साथ-साथ महत्वपूर्ण शोधपरक रचनाएँ व किताबें प्रकाशित। सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यत्रऎम के अन्तर्गत आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैण्ड तथा इटली प्रवास। पता: सरगीपाल पारा, कोंडागाँव ब्ेब्ख्ख्म्, बस्तर-छत्तीसगढ़।

साभार- उदंती डॉट कॉम से

11 comments:

sarita argarey said...

बेहतरीन जानकारी । तथाकथित आधुनिक और सभ्य समाज इन शिक्षण केन्द्रों से आज भी बहुत कुछ सीख सकता है ।

Gyan Dutt Pandey said...

जो स्टिंक इस समय समाज में है, उसे देखते हुये नई व्यवस्था के प्रणेता की जरूरत है सभ्य(?) समाज में भी।

Anonymous said...

बहुत अच्‍छी जानकारी दी आपने। एक सभ्‍य समाज के सारे गुण होने के बावजूद अपने लोक और संस्‍कृति से जुड़े हैं ये लोग।

Roshani said...

Rochak jankari ke liye Dhanywad aur shukriya bhi.

Pushpendra Singh "Pushp" said...

मै आपके ब्लॉग पर पहली बार
आया आपको पढ़ कर अच्छा लगा अच्छी जानकारी बस्तर के बारे में
धन्यवाद ................

Dr. Tripat Mehta said...

bahut badiya jaankaari :)

http://sparkledaroma.blogspot.com/
http://liberalflorence.blogspot.com/

Rahul Singh said...

आप ल ब्‍लॉग म देख के बने लगिस. लिखत रइह, हमन पढ़त रहिबो.

priyadarshini said...

Bhut upayogi jankaari di hai aapne...

छत्तीसगढ़ पोस्ट said...

बहुत अच्छी जानकारियों और गलतफहमियों को दूर करने वाला पोस्ट...शुक्रिया..

Swarajya karun said...

नयी पीढ़ी द्वारा घोटुल प्रथा पर उठायी जा रही आपत्ति के विषय में पण्डीराम कहते हैं, 'कई लोग घोटुल प्रथा पर आपत्ति कर रहे हैं। नयी पीढ़ी के लोग कह रहे हैं कि घोटुल प्रथा से हमें लज्जा आने लगी है। इसीलिये इसे बन्द कर दिया जाना चाहिये। किन्तु मेरा कहना है कि इसमें शर्म किस बात की? बड़े-बड़े शहरों में कितनी नंगाई होती है। उन्हें कोई नहीं देखता. शहरी मानसिकता के वर्तमान तथा कथित सभ्य समाज को इस आलेख की इन पंक्तियों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. अच्छा आलेख. सार्थक लेखन.बधाई और शुभकामनाएं .

Unknown said...

bahut bahut dhanyawad !! mujhe pata nahi tha, jankari hone par mujhe is samuday me janm sanskar pakar apne ko garv ho raha hai