तब शायद मेरी उम्र आठ वर्ष के लगभग रही होगी। स्कूल से पिकनिक पर पूरे हुजूम के साथ कोटुमसर जाना हुआ था। घने जंगलों से होती हुई हमारी बस एक गुफा के मुहाने के पास रुकी। बस से पैट्रोमेक्स उतारे गये, सभी नें हाँथों में सर्च लाईटें थाम ली थीं लेकिन साथ ही बच्चों को गुफा के भीतर न जाने की हिदायत दे दी गयी। मैं गुफा के किनारे खडा एक एक कर सभी को उस अधेरी खोह में जाते देखता रहा। एक सीधा कुँआ सा जिसमें लोहे की सीढी से उतर कर फिर बैठ कर रेंगते हुए उस सुरंग में एक एक कर सभी ओझल हो गये और मैं कल्पनाओं में विचरता रहा। रास्ते में मास्टरजी नें बताया था कि यह कोई साधारण गुफा नहीं अपितु भारत की सबसे बडी और विश्व की सातवीं सबसे बडी प्राकृतिक गुफा है। मेरी कल्पना में इसकी लम्बाई चौडाई का अनुमान तो नहीं था किंतु बाल मन इसे कभी अपनी कल्पनाओं में डाकुओं का अड्डा समझता तो कभी किसी राक्षस का घर...फिर सभी के लौटने में होने वाली देरी से घबराहट, आशंकाये और जिज्ञासा तीनों ही बढने लगी थी। लगभग एक घंटे के बाद सभी गुफा से बाहर लौटे तो पसीने से तर-बतर थे। सभी के चेहरे से रोमांच टपक पडता था। गुफा के रहस्यों की अनगिनत कहानियाँ जितने मुख उतनी बातों सुनीं। यह गुफा मेरे अवचेतन में बहुत सी अनगढ कहानियों की तरह रही जिसपर से पर्दा तब उठा जब मैं जगदलपुर में अपनी स्नातक की पढाई करने आया और हॉस्टल में रहने लगा।
जैसे को तैसे लोग मिल ही जाते हैं। हम आठ मित्र सायकल लिये जगदलपुर से निकले कुटुमसर गुफा के रहस्य-रोमांच से परिचित होनें। पिकनिक की पिकनिक और एडवेंचर का एडवेंचर। जगदलपुर से पैतीस किलोमीटर की सायकलिंग अधिकतम मार्ग मैदाने होने के कारण कठिन नहीं थी किंतु कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करते ही प्रकृति अपनी सुन्दरतम छटाओं से स्वागतातुर हो उठी। घने दरखतों, चंचल लताओं, शोर करते झरनों और चुहुल करते परिंदों के बीच पहुँचते ही रास्ते की थकान काफुर हो गयी थी। कोटुमसर गाँव पहुँच कर हम कुछ सुस्ताने के लिये रुके। गर्मागरम चाय भजिये के साथ खाने के साथ खुली हवा में गहरी गहरी स्वाँसे ले कर अहसास होने लगा कि क्यों प्रकृति को माता कहा जाता है।
कोटुमसर गाँव से लगभग तीन किलोमीटर और हमें चलना था जहाँ गुपनसर पहाडी की तलहटी में प्रसिद्ध कोटुमसर गुफा अवस्थित है। हमनें काँगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के चैकपोस्ट्स से गाईड लेना ही उचित समझा। गाईड नें अपना पैट्रोमैक्स साथ ले लिया था। हम सभी मित्र सर्च लाईट ले कर ही चले थे, यानी कि हमारी तैयारी इस रहस्य को समझने के लिये पूरी थी। गाईड नें हमें बताया कि इस गुफा की लंबाई लगभग 4500 फीट तथा गुफा के मुहाने से धरातल की गहराई लगभग 60 से 215 फीट तक है। बचपन की वह पिकनिक मेरी स्मृतियों में पुन: जी उठी जहाँ से अनेकों प्रश्न और जिज्ञासायें अब तक मेरे साथ रही थीं और उन सभी का उत्तर मुझे आज मिलने वाला था।
उपर से नीचे झाँकते ही एक बार को मन में डर समा गया। सीधी ढाल और गहरा अंधकार..मैंने सर्चलाईट से निरीक्षण किया किंतु केवल घुप्प सन्नाटा और गहरा अंधकार। हम सभी संभल संभल कर उतरने लगे। गाईड आगे आगे बढता हुआ हमारा हौसला भी बढा रहा था। लगभग पचपन फीट नीचे उतरने के बाद हम समतल धरातल पर थे। जैसे किसी विशाल कक्ष में पहुँच गये हों। एसा प्रतीत होता था जैसे किसी तिलिस्म का रहस्योद्घघाटन होना हो। गुफा में चारो ओर से पानी रिस रहा था और ऑक्सीजन के कम होने का आभास भी होने लगा था। हम सभी की सर्चलाईटे गुफा की दीवारों पर यत्र तत्र रोशनी के गोले बनाने लगीं। आठ सर्चलाईट और एक पट्रोमेक्स भी उस गुफा के अंधकार का भेदन करने में अपर्याप्त था अपितु प्रतीत होता था कि हम दीपक ले कर अंधेरे में अंदाजे से आगे बढ रहे हैं।
सफेद पत्थरों की झालरों नें एकाएक आँखें विस्मय से चौडी कर दीं उनपर प्रकाश पडते ही लगा जैसे किसी आलीशान महल से काँच की झालरें लटकी हों। फिर जमीन से उपर उठती वैसी ही संरचनाए....वस्तुत: चूनापत्थर (लाईम स्टोन) ने पानी के साथ क्रिया करने के बाद गुफा की दरारों से रिस रिस कर स्टेलेक्टाईट अथवा आश्चुताश्म (दीवार से नीचे की ओर लटकी चूना पत्थर की रचना: छत से रिसता हुवा जल धीरे-धीरे टपकता रहता हैं। इस जल में अनेक पदार्थ घुले रहते हैं। अधिक ताप के कारण वाष्पीकरण होने पर जल सूखने लगता हैं तथा गुफा की छत पर पदार्थों जमा होने लगता हैं । इस निक्षेप की आक्र्ति परले स्तंभ की तरह होती हैं जो छत से नीचे फर्श की ओर विकसित होते हैं)। स्टेलेक्माईट अथवा निश्चुताश्म (जमीन से दीवार की ओर उठी चूना पत्थर की संरचना: छत से टपकता हुवा जल फर्श पर धीरे-धीरे एकत्रित होता रहता हैं । इससे फर्श पर भी स्तंभ जैसी आकृति बनने लगती हैं। यह विकसित होकर छत की ओर बड़ने लगती हैं) और पिलर अथवा स्तंभ (जब स्टेलेक्टाईट और स्टेलेक्माईट मिल जाते हैं) संरचनायें बनायी हैं। प्रकृति की इस अनोखी रचना को देख कर आँखों को यकीन करना पडा कि पाताललोक न केवल रहस्यमय है बल्कि सुन्दरता में भी इसका कोई सानी नहीं।
एकाएक गाईड नें एक स्थल पर हमें रोक दिया और नीचे झुक कर देखने को कहा। बहते हुए पानी में लगभग दो इंच की मछलियों का एक झुंड सा दिखा। हम यह जान कर आश्चर्यचकित हो उठे कि यह प्रजाती विश्वभर में अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं। इस गुफा में खास देखी जाने योग्य है यह बिना आँख की मछली – “कैपिओला शंकराई”। इस मछली का नाम उसके खोजी डॉ. शंकर तिवारी के नाम पर पड गया था। मछलियों में आँख का न होना गुफा के भीतर रोशनी के न होने के कारण है। हम हर्षित थे कि हमने इस दुर्लभ जीव और उसकी चंचलता को इतने करीब से महसूस किया जिसे देख पाना ही एक अनुभव है।
एकाएक मैं लडखडाया और मेरा हाँथ पास के प्राकृतिक चूने पत्थर निर्मित श्वेत स्तंभ से टकर गया। एल मोहक सी ध्वनि गूँज उठी जैसे संगीत का कोई वाद्ययंत्र बज उठा हो। फिर क्या था मैंने आसपास के स्तंभों से एसी ही ध्वनियाँ निकालने का यत्न किया और खामोशी संगीतमय हो उठी। कभी जलतरंग बज उठते तो कभी मानों ढोलक की थाप सुनाई पडती। गाईड नें हमें विस्तार से इस प्राकृतिक चमत्कार से अवगत कराया। यहाँ के पत्थर पत्थर बोलते हैं, बज उठते हैं झूमते हैं....मुझे ज्ञात था कि आकाशवाणी जगदलपुर नें 1985 में इन्ही बोलते-बज उठते पाषाणों को रिकॉर्ड कर संगीतमय कार्यक्रम बनाया था जो बहुत चर्चित रहा था।
कभी आश्चर्यचकित होते तो कभी रोमांचित होते या कभी भयभीत होते हम गुफा के उस अंतिम छोर तक पहुचे जिसके आगे पर्यटकों को जाने की अनुमति नहीं है। यहाँ पर एक स्टेलेक्माईट का स्वरूप शिवलिंग की तरह है, पर्यटक वहा पहुँच कर पूजन-अर्चन भी करते हैं। यह जन श्रुति है कि इन गुफाओं में देवता वास करते हैं और यहाँ पहुचना एक तीर्थ करने सदृश्य है। केवल पुण्यात्मा ही यहाँ पहुँच सकते हैं एसी मान्यता है।
गुफा के बाहर आते ही आँखें तीखी रोशनी से चौंधिया उठीं। कुछ पल ठहर कर ही आँखें पूरी खोली जा सकीं। चारों ओर घने जंगल के बीच खडा मैं मुश्किल से यकीन कर सका था कि किसी दूसरी दुनियाँ से हो कर लौटा हूँ और एसे अनुभवों के साथ जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। तब से अनेकों बार इस गुफा में हो आया हूँ किंतु हर बार इस गुफा के भीतर रहस्य का समंदर मिलता है, मैं दो चार लहरों से खेल कर लौट आता हूँ और फिर...यहाँ प्रचलित लोकगीत है “आमचो बस्तर किमचो सुन्दर किमचो भोले भाले रे” और यही सच है कि अपने बस्तरिया होने पर इसी लिये मुझे गर्व है।
पर्यटन की दृष्टि से यहाँ पहुचना कोई कठिन भी नहीं। रायपुर छतीसगढ की राजधानी है और यहाँ से जगदलपुर सडक मार्ग द्वारा लगभग सात घंटे में पहुँचा जा सकता है। जगदलपुर में हर स्तर और सुविधा के होटल उपलब्ध हैं। जहाँ से निजी वाहन द्वारा इस स्थल की सैर करने का रोमांच लिया जा सकता है। बस्तर की हरी धरती स्वागत करती है अपने आगंतुकों का, इसकी सादगी से परिचित हो कर जाने वाले कभी भी अपने अनुभव विस्मृत नहीं कर सकेंगे।
*** राजीव रंजन प्रसाद
12 comments:
सुंदर विवरण, इच्छा हुई कि गुफा देखने अभी चल पड़ें। पर संभव नहीं। आप के चित्रों और विवरण से मिली जानकारी से संतोष करेंगे।
बहुत मेहनत से लिखा आपने। लेख और चित्रों के लिये आभार।
अदभुत चित्र हैं अच्छे हैं।
बहुत ही जीवंत वर्णन किया है आप ने ..मुझे जूल्स वर्न की अ जर्नी इंटो द सेंटर आफ अर्थ की याद आ गयी और याद आया अम्बिका दत्त व्यास की १९८४-८७ में वहीं की पृष्ठभूमि पर लिखा तत्कालीन लघु उपन्यास -विचित्र वृत्तांत !कहीं उस उपन्यास का प्रेरणा स्रोत यही गुफा ही तो नही थी ?
रोचक जानकारी!! बढ़िया वृतांत..लेख और सुंदर चित्रों के लिये आभार!
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आज टिप्पणी अवकाश है !
अरे वाह...
राजीव जी, ऐसी ही एक गुफा देहरादून और मसूरी के बीच भी है... वहां मैंने टीवी 100 के लिए आधे घंटे का प्रोग्राम बनाया था. वो भी बहुत रहस्यमयी, रोमांचक और विशाल है लेकिन निश्चित रूप से इतनी बड़ी नहीं. धरती के गर्भ में न जाने क्या क्या छिपा है. बस्तर की धरती को नमन, जहां अब तक संस्कृति कई रूपों में संरक्षित है.
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
कुटुमसर की गुफा का आपका लिखा हुआ अनुभव पढ़ते हुए मुझे ऐसे लगा कि जैसे एक बालक प्रकृति को उसके सहज रूप में निहार रहा है और उसके अनोखे रूप से विस्मय से भरा है। निर्मल वर्मा अगर यह पढ़ते तो इसे देखने की मृदुता शब्द से संबोधित करते।
ऐसी आकर्षक तस्वीरें !
इतनी सुंदर प्रस्तुति !!
भाई ये तो लाज़वाब है.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अनूप जी
आपके बहाने कोतुम्सर हमने भी घूम लिया .....आगे कुछ और भी ठिकानों की सैर कराएँ .
dekha kar hi bhay ho raha hai...wakayee patal lok sdrish hai..
jivant vivaran!
पढकर ऐसा लगा कि में आप के साथ ही हुँ
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