लखनऊ ,अप्रैल। उत्तर प्रदेश में अन्ना हजारे के अभियान का असर राजनैतिक दलों पर दिखाई देने लगा है । बुद्धिजीवियों में जहां अन्ना हजारे को लेकर मतभेद भी सामने आए है वही कुछ राजनैतिक दलों ने हजारे से उत्तर प्रदेश में आने की मांग की है । समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आज यहां कहा कि अन्ना हजारे को उत्तर प्रदेश में आना चाहिए यहां उनकी ज्यादा जरुरत है ,पर उनको सावधान रहना चाहिए कही उनके साथ मायावती सरकार भी वही सलूक करे जो हम लोगों के साथ किया था । वाम लोकतांत्रिक ताकतों के गठबंधन जन संघर्ष मोर्चा ने भी उत्तर प्रदेश के राजनैतिक हालत को देखते हुए अन्ना हजारे के अभियान का न सिर्फ समर्थन किया बल्कि उन्हें प्रदेश में लाने के प्रयास में है । भारतीय जनता पार्टी ने भी हजारे से उत्तर प्रदेश में अपना अभियान छेड़ने की अपील की है । दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी के कई मंत्री अब सतर्क हो गए है और विभाग के आला अफसरों को साफ़ कर दिया है कि अब किसी भी ठेके आदि में माफिया का दखल नही होना चाहिए । दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज की तारीफ़ पर बुद्धिजीवियों ने हजारे को लेकर सवाल खड़ा किया है । गौरतलब है कि हजारे के समर्थन में बड़ी संख्या मे मुस्लिम भी जुटे थे जो इस टिप्पणी से काफी आहत है । पत्रकार वजीहा ने कहा - हजारे के इस बयान से धर्मनिरपेक्ष लोगों को दुःख हुआ है । वैसे भी हजारे के साथ के कुछ लोगों का भाजपा से संबंध सार्वजनिक हो चुका है । ऐसे बयान से उनके अभियान को झटका लगेगा । लखनऊ विश्विद्यालय के प्रोफ़ेसर प्रमोद कुमार ने कहा - हजारे के अभियान से देश या प्रदेश में मुझे ज्यादा बदलाव की उम्मीद नही है । देश ने जेपी से लेकर वीपी तक का आंदोलन देखा है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ ही था पर उस सबके बावजूद व्यवस्था नही बदली फिर एनजीओ वाली टीम से क्या बदलाव आ सकता है । राजनैतिक विश्लेषक और वकील सीएम शुक्ल ने कहा -उत्तर प्रदेश में हजारे का रास्ता आसान है - अगर उनका धरना लखनऊ में होता तो सूबे की सरकार हजारे को किसी फर्जी मुक़दमे में फंसा कर निपटा भी सकती थी । जो लोग यहाँ हजारे के समर्थन में धरने पर बैठे थे उन्हें गिरफ्तार करने हसनगंज थाने की पुलिस पहुंच गई थी और दरोगा ने वारंट मांगने पर कहा था - हमारे पास सारी पावर है किसी को भी अंदर कर दूंगा । पत्रकारों के पहुचने पर ही पुलिस वहां से गई ।यह उदाहरण है जिसे हजारे को ध्यान रखना चाहिए उत्तर प्रदेश में कुछ भी हो सकता है । बावजूद इसके हजारे के आंदोलन का क्या असर हुआ है इसे दो उदाहरण से समझा जा सकता है । पूर्वांचल के डान अबू सलेम के भाई अबू जैस ने आजमगढ़ के मुबारकपुर से टिकट मांगा था और पैरवी भी कुछ नेताओं ने की । टिकट तय हो रहा था तभी हजारे का अनशन शुरू हुआ और तीन दिन पहले जब समाजवादी पार्टी की सूची सार्वजनिक हुई तो उसका टिकट कट चुका था । दूसरी तरफ बसपा के एक वरिष्ठ मंत्री नसीमुद्दीन ने हाल ही में जब कुछ विभागों की समीक्षा बैठक की तो अफसरों को साफ़ कर दिया कि किसी भी ठेके में अब माफिया का दखल बर्दाश्त नही होगा । इसी दखल के चलते लखनऊ में दो दो बड़े अफसरों की हत्या हो चुकी है । हजारे के आंदोलन का असर पड़ा है और बहस भी शुरू हुई है । धुर वामपंथी मान रहे है कि हजारे के आंदोलन को कामयाब कराकर कांग्रेस ने अपना फायदा किया है ।पर साथ यह भी कह रहे है कि इस आंदोलन को भाजपा का अप्रत्यक्ष समर्थन रहा है । दूसर हजारे के साथ जो लोग है उनका दक्षिण पंथी ताकतों से संबंध है और महाराष्ट्र में शिवसेना हजारे साथ साथ है । पर हजारे समर्थकों का तर्क अलग है वामपंथी कार्यकर्त्ता राम किशोर ने कहा - वीपी सिंह की सरकार को भाजपा और वाम दलों दोनों का समर्थन था । यह बात लोग भूल जाते है ।फिर जिस आंदोलन की मदद भाजपा करे उसका फायदा कांग्रेस ले लेगी यह तर्क किसी के गले नही उतरता ।आंदोलन म तरह तरह के लोग आते है । इंदिरा नगर में तो नारा लग रहा था -अन्ना हजारे जिंदाबाद ,पप्पू चौरसिया जिंदाबाद । ऐसे नारे से न तो हजारे का कद कम हो जाएगा और न ही कोई चौरसिया का कद बढ़ जाएगा ।आज जनसत्ता में प्रकाशित खबर
इसे बस्तर का दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिये कि, जाने-समझे बिना इसकी संस्कृति, विशेषत: आदिवासी संस्कृति, के विषय में, जिसके जो मन में आये कहदिया जाता रहा है। गोंड जनजाति, विशेषत: इस जनजाति की मुरिया शाखा मेंप्रचलित 'घोटुल` संस्था के विषय में मानव विज्ञानी वेरियर एल्विन से ले करआज तक विभिन्न लोगों ने अपने अल्पज्ञान अथवा अज्ञान के चलते अनाप-शनाप कहडाला है। और यह अनाप-शनाप इसीलिये कहा जाता रहा है योंकि आदिवासी संस्कृतिके तथाकथित जानकारों ने इस संस्था के मर्म को जाना ही नहीं। न तो वे इसकेइतिहास से भिज्ञ रहे हैं और न ही इसकी कार्य-प्रणाली से। अधिकांश ऐसे लोगहैं जिन्होंने वेरियर एल्विन और ग्रियर्सन के लिखे को ही अन्तिम सत्य मानलिया और उन्हीं की दुहाई दे-दे कर घोटुल जैसी पवित्र संस्था पर कीचड़उछालने में लगे रहे। उन्होंने इसकी सत्यता जानने का कोई प्रयास ही नहींकिया। यदि प्रयास करते तो जान पाते कि घोटुल वह नहीं जो वे अब तक समझतेरहे हैं। घोटुल तो गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय है, समाज-शिक्षा कामन्दिर है, लिंगो पेन यानी लिंगो देवता की आराधना का पवित्र स्थल है। 'लिंगो` पेन घोटुल के संस्थापक और नियामक रहे हैं। गोंड समाज के प्रमुखोंके अनुसार लिंगो देव को ही हल्बी परिवेश में बू़ढा देव तथा छत्तीसगढ़ीपरिवेश में बड़ा देव सम्बोधित किया जाता है। और ये बू़ढा देव, बड़ा देव यालिंगो पेन भगवान शिव (नटराज) के ही अवतार या अंग माने जाते हैं।
गोंडसमुदाय से सम्बद्घ पालकी (नारायणपुर) निवासी रमो-चन्द्र दुग्गा (सम्प्रति : सहायक वन संरक्षक, वन विभाग, छत्तीसगढ़) कहते हैं, 'हमारे समाज में यहविश्वास है कि घोटुल की परम्परा का सूत्रपात तथा वाद्यऱ्यन्त्रों की रचनाभी लिंगो द्वारा ही की गयी है। सारे नियम व रीति-रिवाज लिंगो द्वारा हीबनाये गये हैं। इन्हें आगे चल कर लिंगो पेन यानी लिंगो देवता के रूप मेंजाना और माना गया। बेठिया प्रथा का बस्तर में चलन है। इस प्रथा केअन्तर्गत गाँव के लोग जरुरतमंद व्यि त के घर का बड़ा-से-बड़ा कार्य बिनाकिसी मेहनताना लिए करते हैं। घोटुल में यही भावना निहित होती।` आज भीघोटुल की परम्परा, नियम व रीति-रिवाजों का पालन किया जा रहा है अत: घोटुलको गोंड जनजाति का विश्वविद्यालय कहा जाना चाहिये। गढ़बेंगाल (नारायणपुर) निवासी सुप्रसिद्घ काष्ठ शिल्पी पण्डीराम मण्डावी कहते हैं, 'घोटुल में हम लोग आपसी भाई-चारे की शिक्षा ग्रहण करते हैं। हम तो आदिवासीहैं। बड़ी-बड़ी बातें नहीं जानते किन्तु हमें अपनी परम्पराओं से लगाव है।हो सकता है कि हमारी परम्पराएँ दूसरों को ठीक न लगती हों। मैं तथाकथितऊँचे लोगों की तुलना में अपने समाज को अच्छा समझता हूँ। कारण, हमारे समाजमें बलात्कार नहीं होता। दूसरी बात, घोटुल से हमारे समाज को कई फायदे हैं, जब कभी समाज या परिवार में कोई काम होता है, घोटुल के सारे सदस्य मिल-जुलकर उसे पूरा करते हैं। चाहे वह सुख हो या दु:ख। मसलन, आज हमारे लड़के काविवाह करना है तब हम घोटुल के सदस्यों को कुछ भेंट दे कर उन्हें बताते हैंकि आठ-दस या पन्द्रह दिनों बाद मेरे घर में विवाह है। यह सूचना पा करघोटुल की सारी लड़कियाँ पत्ते तोडेंगी, लड़के लकड़ी लायेंगे, नाचेंगे, गायेंगे, खाना बनायेंगे। इसी तरह, यदि किसी के घर में मृत्यु हो गयी हो याविपत्ति आ गयी हो तो भी घोटुल के सदस्य हमारे काम आते हैं। एक गाँव सेदूसरे गाँव तक सूचना भेजने का साधन हमारे पास नहीं है, हमारे पास फोन नहींहै। हमारे कुटुम्बी दूर दराज के गाँवों में रहते हैं। तब ऐसे समय मेंघोटुल के सब लड़के सायकिल ले कर या पैदल खबर देने जाते हैं। तो मेरे हिसाबसे घोटुल का बना रहना समाज के हित में है। यहाँ सहकार की भावना काम करतीहै।` नयी पीढ़ी द्वारा घोटुल प्रथा पर उठायी जा रही आपत्ति के विषयमें पण्डीराम कहते हैं, 'कई लोग घोटुल प्रथा पर आपत्ति कर रहे हैं। नयीपीढ़ी के लोग कह रहे हैं कि घोटुल प्रथा से हमें लज्जा आने लगी है।इसीलिये इसे बन्द कर दिया जाना चाहिये। किन्तु मेरा कहना है कि इसमें शर्मकिस बात की? बड़े-बड़े शहरों में कितनी नंगाई होती है। उन्हें कोई नहींदेखता। रात में नाचते हैं, गाते हैं। हमारा आदिवासी भाई एक पौधे के आड़में जा कर मूत्र विसर्जन करता है किन्तु शहर में तो लोग कहीं भी मूत्रविसर्जन कर देते हैं जबकि वहाँ लोगों की भीड़ रहती है किसी मेले की तरह।किन्तु वहाँ लोगों को एक-दूसरे का ख्याल नहीं होता।`
क्या होता है घोटुल में?
घोटुलको आरम्भ से ही एक प्रभावी और सर्वमान्य सामाजिक संस्था के रूप मेंमान्यता मिलती रही है। इसे एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता रहा है, जिसकी भूमिका गोंड जनजाति की मुरिया शाखा को संगठित करने में प्रभावी रहाहै। यों तो मोटे तौर पर घोटुल मनोरंजन का केन्द्र रहा है, जिसमें प्रत्येकरात्रि नृत्य, गीत गायन, कथा-वाचन एवं विभिन्न तरह के खेल खेले जाते हैं।किन्तु मनोरंजन प्रमुख नहीं अपितु गौण होता है । प्रमुखत: यह संस्थासामाजिक सरोकारों से जु़डी होती है।
वे सामाजिक सरोकार क्या हैं: 1. संगठन की भावना को बल दिया जाता है।
2. गाँव के सामाजिक कार्य (विवाह, मृत्यु, निर्माण-कार्य आदि) में श्रमदान किया जाता है।
3. युवकऱ्युवतियों को सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की शिक्षा दी जाती है।
4. भावी वर-वधू को विवाह-पूर्व सीख दी जाती है।
5. हस्त-कलाओं का ज्ञान कराया जाता है।
6. गाँव में आयी किसी विपत्ति का सामना एकजुट हो कर किया जाता है।।
7.वाचिक परम्परा का नित्य प्रसार किया जाता है।
8. अनुशासित जीवन जीने की सीख दी जाती है।
घोटुल के नियम?
घोटुलके नियम अलिखित किन्तु कठोर और सर्वमान्य होते हैं। विवाहितों को घोटुल केआन्तरिक क्रिया-कलाप में भागीदारी की अनुमति, विशेेष अवसरों को छाे़ड कर, प्राय: नहीं होती। इन नियमों को संक्षेप में इस तरह देखा जा सकता है :
1. प्रत्येक चेलिक को प्रतिदिन लकड़ी लाना आवश्यक है।
2. मोटियारिन के लिये पनेया (एक तरह का कंघा) बना कर देना आवश्यक है।
3. अपने वरिष्ठों का सम्मान करना तथा कनिष्ठों के प्रति सदय होना आवश्यक है।
4. संस्था के पदाधिकारियों द्वारा दिये गये कार्य को सम्पन्न करना आवश्यक है।
5. मोटियारिनों के लिये आवश्यक है कि वे घोटुल के भीतर तथा बाहर साफ-सफाई रखें।
6. गाँव के किसी भी काम में घोटुल की सहमति से सहायक होना आवश्यक है।
7.घोटुल तथा गाँव में शान्ति बनाये रखने में सहयोगी होना आवश्यक है।
नियमों के उल्लंघन पर दण्ड का प्रावधान? घोटुलके नियमों का उल्लंघन होने पर दोषी को दण्ड का भागी होना पड़ता है। घोटुलके नियमों का पालन नहीं करने वाले को उसकी त्रुटि के अनुरूप लघु या दीर्घदंड दिये जाने का प्रावधान होता है। छोटी और बड़ी सजा के कुछ उदाहरण :
1. छोटी सजा : घोटुलके तयशुदा कर्त्तव्यों का पालन नहीं करना दोषी को प्राय: छोटी सजा काहकदार बनाता है। उदाहरण के तौर पर, लकड़ी ले कर न आना। सभी सदस्य युवकोंके लिये आवश्यक होता है कि वे घोटुल में प्रतिदिन कम से कम एक जलाऊ लकड़ीले कर आयें। यदि कोई सदस्य इसमें चूक कर जाता है तब उसे छोटी सजा दी जातीहै। छोटी सजा के कुछ उदाहरण:
1. अ. आर्थिक दण्ड :छोटी सजा के रुप में प्राय: पाँच से दस रुपये तक के आर्थिक दण्ड का प्रावधान है।
किन्तुयदि दोषी चेलिक आर्थिक दण्ड भुगतने की स्थिति में न हो तो उसे शारीरिकदण्ड भोगना पड़ता है। किन्तु चूक यदि कुछ अधिक ही हो गयी हो तो उसे आर्थिकऔर शारीरिक दोनों ही तरह के दण्ड भुगतने पड़ सकते हैं।
1. ब. शारीरिक दण्ड :शारीरिक दण्ड के अन्तर्गत बेंट सजा दिये जाने का प्रावधान होता है। बेंटसजा के अन्तर्गत दोषी चेलिक को उकड़ूँ बिठा कर उसके दोनों घुटनों औरकोहनियों के बीच एक मोटी सी गोल लकड़ी डाल दी जाती है। इसके बाद उस परकपड़े को ऐंठ कर बनायी गयी बेंट से उसकी देह पर प्रहार किया जाता है। कईदूसरे प्रकार के शारीरिक दण्डों का भी प्रावधान होता है। मोटियारिनों केलिये अलग किस्म के दण्ड का प्रावधान होता है। उदाहरण के लिये यदि किसीमोटियारिन ने साफ-सफाई के काम में अपनी साथिन का सही ढंग से साथ नहीं दियातो उसे साफ-सफाई का काम अकेले ही निपटाना पड़ता है।
1. स. प्रतिबन्धात्मक दण्ड :त्रुटियों की पुनरावृत्ति अथवा पदाधिकारियों के आदेश की अवहेलना अथवालापरवाही की परिणति प्रतिबन्धात्मक दंड के रूप में होती है। इस दण्ड केअन्तर्गतदोषी पर कुछ दिनों के लिये घोटुल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दियाजाता है।
2. बड़ी सजा : बड़ी चूक हो तोदोषी को घोटुल से निष्कासित कर उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है। ऐसेचेलिक/ मोटियारी के घर-परिवार में होने वाले किसी भी कार्य में घोटुल केसदस्य सहयोग नहीं करते।
इस तरह के कठोर नियमों के कारण घोटुल केनियमों की अनदेखी करने की हिम्मत प्राय: कोई नहीं करता। हँसी-ठिठोली उसीतरह के रिश्ते में आने वाले लड़के और लड़की के बीच ही सम्भव है, जिनके बीचहँसी-ठिठोली को सामाजिक मान्यता मिली हुई है। किन्तु हँसी-मजाक के आगेसीमा का उल्लंघन करने की अनुमति उन्हें भी नहीं होती। यदि घोटुल के किसीयुवकऱ्युवती के बीच घोटुल में या घोटुल के बाहर गलती से भी अनैतिक सम्बन्धहोने की पुष्टि हो जाती है तो उन्हें घोटुल एवं समाज के नियमों के मुताबिकदण्ड का भागी होना पड़ता है। सबसे पहला दण्ड होता है उनका घोटुल सेनिष्कासन। इसके बाद समाज की बैठक में उन पर निर्णय लिया जाता है। सामाजिकनियमों के अन्तर्गत विवाह-बन्धन के योग्य माने जाने पर उनका विवाह करादिया जाता है। उल्लेखनीय है कि घोटुल के नियमों के तहत दिये गये दण्ड केविरूद्घ प्राय: कोई सुनवाई नहीं होती।
संस्था का संचालन
इससंस्था के संचालन के लिये विभिन्न अधिकारी होते हैं, जिनके अधिकार एवंकर्त्तव्य निचित और भिन्न-भिन्न होते हैं। ये अधिकारी अलग-अलग विभागों केप्रमुख होते हैं। इन अधिकारियों के सहायक भी हुआ करते हैं। ये अधिकारी हैंकोटवार, तसिलदार (तहसीलदार), दफेदार, मुकवान, पटेल, देवान (दीवान), हवलदार, कानिसबिल (कॉन्स्टेबल), दुलोसा, बेलोसा, अतकरी, बुदकरी आदि।प्राय: दीवान ही संस्था का सांवैधानिक प्रमुख हुआ करता है। इन अधिकारियोंके अधिकारों को घोटुल के बाहर चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके साथ ही यदिकिसी अधिकारी द्वारा अपने कर्त्तव्य-पालन में किसी भी तरह की चूक हुई तोउसे भी घोटुल-प्रशासन दण्डित करने से नहीं चूकता। किन्तु इसका यह अर्थनहीं कि यहाँ घोटुल-प्राासन की तानाशाही चलती हो। पूरे प्रजातान्त्रिक ढंगसे यहाँ का प्रशासन चलता है और बहुत ही कायदे से चलता है।
कौन थे घोटुल के
प्रणेता लिंगो पेन ? 'घोटुल` नामक इस संस्था के प्रणेता के रूप में जाने जाने वाले लिंगो पेन के विषयमें गोंड समुदाय से सम्बद्घ पालकी (नारायणपुर) निवासी रमो चन्द्र दुग्गाएक मिथ कथा बताते हैं:
बहुतपहले की बात है। वर्तमान नारायणपुर जिले में रावघाट की पहाड़ियों की जोश्रृंखला है, उसी क्षेत्र में कभी सात भाई रहा करते थे। वह क्षेत्र 'दुगानहूर ` के नाम से जाना जाता था। उन सात भाइयों में सबसे छोटे भाई का नाम था 'लिंगो`। अपने छहों भाइयों की तुलना लिंगो शारीरिक, बौदि्घक, आदि सभीदृष्टि से बड़ा ही शि तााली और गुणी था। कहते हैं वह एक साथ बारह प्रकारके वाद्ययंत्र समान रूप से बजाता लेता था। खेत-खलिहान तथा अन्य काम के समयसभी छह भाई सवेरे से अपने- अपने काम में चले जाते थे। छहों भाइयों काविवाह हो चुका था। लिंगो सभी भाइयों का लाड़ला था। न केवल भाइयों का बल्किवह अपनी छहों भाभियों का भी प्यारा था। वह संगीत-कला में निष्णांत तथाविशेषज्ञ था। सुबह उठते ही दैनिक कर्म से निवृत्त हो कर वह संगीत-साधनामें जुट जाता। उसकी भाभियाँ उसके संगीत से इतना मन्त्र-मुग्ध हो जाया करतीथीं कि वे अपने सारा काम भूल जाती थीं। इस कारण प्राय: उसके भाइयों औरभाभियों के बीच तकरार हो जाया करती थी। कारण, न तो वे समय पर भोजन तैयारकर पातीं न अपने पतियों को समय पर खेत-खलिहान में भोजन पहुँचा पातीं। इसकारण छहों भाई लिंगो से भी नाराज रहा करते। वे थक-हार कर जब घर लौटते तोपाते लिंगो संगीत-साधना में जुटा है और उनकी पत्नियाँ मन्त्र-मुग्ध हो करउसका संगीत सुन रहीं हैं। तब छहों भाइयों ने विचार किया कि यह तो संगीत सेअलग हो नहीं सकता और इसके रहते हमारी पत्नियाँ इसके संगीत के मोह से मु तनहीं हो सकतीं। पहले तो लिंगो को समझाया कि वह अपनी संगीत-साधना बन्द करदे। लेकिन लिंगो चाह कर भी ऐसा न कर सका। तब छहों भाइयों ने तय किया कियों न इसे मार दिया जाये। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। एक दिन उन लोगोंने एक योजना बनायी और शिकार करने चले गए। साथ में लिंगो को भी ले गए। जबवे जंगल पहुँचे तो योजनानुसार एक पे़ड की खोह में छुपे 'बरचे` (गिलहरीप्रजाति का गिलहरी से थोडा बड़ा जन्तु। बरचे का रंग भूरा और पूँछ लम्बीहोती है। आज भी इसका शिकार बस्तर के वनवासी करते हैं और बड़े चाव के खातेहैं।) को मारने के लिये लिंगो को पे़ड पर चढ़ा दिया और स्वयं उस पे़ड केनीचे तीर-कमान साध कर खड़े हो गये। बहरहाल, लिंगो पे़ड पर चढ़ गया और बरचेको तलाशने लगा। इसी समय इन छहों भाइयों में से एक ने मौका अच्छा जान करनीचे से तीर चला दिया। तीर लिंगो की बजाय पे़ड की शाख पर जा लगा। पे़ड थाबीजा का। तीर लगते ही शाख से बीजा का रस जो लाल रंग का होता है, नीचेटपकने लगा। छहों भाइयों ने सोचा कि तीर लिंगो को ही लगा है और यह खून उसीका है। उन्होंने सोचा कि जब तीर उसे लग ही गया है तो उसका अब जीवित रहनामुश्किल है। ऐसा सोच कर वे वहाँ से तितर-बितर हो कर घर भाग आये। घर आ करसब ने चैन की साँस ली। उधर लिंगो ने देखा कि उसके भाई पता नहीं यों उसेअकेला छोड कर भाग गये। उसे सन्देह हुआ। वह धीरे-धीरे पे़ड पर से नीचे उतराऔर घर की ओर चल पड़ा। कुछ सोच कर उसने पिछले दरवाजे से घर में प्रवेशकिया। वहाँ भाई और भाभियों की बातें सुनीं तो उसके रोंगटे खड़े हो गये।लेकिन उसने यह तथ्य किसी को नहीं बताया और चुपके से भीतर आ गया जैसे किउसने उनकी बातचीत सुनी ही न हो। उसे जीवित देख कर उसके भाईयों को बड़ाआचर्य हुआ। खैर! बात आयी-गयी हो गयी। दिन पहले की ही तरह गुजरने लगे। इसघटना के कुछ ही दिनों बाद उसका भी विवाह कर दिया गया। उसका विवाह एक ऐसेपरिवार में हुआ, जिसके परिवार के लोग जादू-टोना जानते थे। उसकी पत्नी भीयह विद्या जानती थी। समय बीतता रहा। उनके परिवार में कभी कोई बच्चा या कभीभाई- भाभी बीमार पड़ते तो हर बार छोटी बहू पर ही शक की सुई जा ठहरती थी, कि वही सब पर जादू- टोना कर रही है। तब छह भाइयों ने छोटे भाई और बहू कोघर से बाहर निकालने की सोची। एक दिन लिंगो के भाइयों ने स्पष्ट शब्दों मेंलिंगो से कह दिया, 'तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की वजह से हम सभी लोगों कोकाफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अत: तुम लोग न केवल घर छोड करबल्कि यह परगना छोड कर कहीं अन्यत्र चले जाओ। हम तुम्हें अपनी सम्पत्तिमें से कुछ भी हिस्सा नहीं देंगे लेकिन यादगार के तौर पर तुम्हें यह 'मोह्ट` (अँग्रेजी के 'यू` आकार की एक चौडी कील जिससे हल फँसी रहती है।इसे हल्बी परिवश में 'गोली ' कहा जाता है) देते है ।
' लिंगो उसे ले कर अपनी पत्नी के साथ वहाँ से चल पड़ता है। रास्ते मेंकन्द-मूल खाते, उस परगने से बाहर जा पहुँचता है। चलते-चलते वे एक गाँव केपास पहुँचते हैं। फागुन-चैत्र महीना था। वहां उसने देखा कि धान की मिजाईकरने के बाद निकला ढेर सारा पैरा (पुआल) कोठार (खलिहान) में रखा हुआ था।घर से निकलने के बाद से उन्हें भोजन के रूप में अन्न नसीब नहीं हुआ था।उसे देख कर उसके मन में अशा की किरण जागी और उसने विचार किया कि यों न इसीपैरा को दुबारा मींज कर धान के कुछ दाने इकट्ठे किये जाएं। यह सोच कर उसनेउस कोठार वाले किसान से अपना दुखड़ा सुनाया और उस पैरा को मींजने कीअनुमति माँगी। उस किसान ने उसकी व्यथा सुन कर उसे मिजाई करने की अनुमति देदी। उसने गाँव लोगों से निवेदन कर बैल माँगे और उस 'मोह्ट` को उसी स्थानपर स्थापित कर उससे विनती की, कि तुम्हें मेरे भाइयों ने मुझे दिया है।मैं उनका और तुम्हारा सम्मान करते हुए तुम्हारी ईश्वर के समान पूजा करताहूँ। यदि तुममें कोई शि त है, तुम मेरी भि त की लाज रख सकते हो तो इस पैरासे भी मुझे धान मिले अन्यथा मैं तुम्हारे ऊपर मल-मूत्र कर तुम्हें फेंकदूँगा। ऐसा कह उसने मिजाई शुरु की। वह मिजाई करता चला गया। मिजाई समाप्तहोने पर न केवल उसने बल्कि गाँव वालों ने भी देखा कि उस पैरा से ढेर साराधान निकल गया है। सब लोग आश्चर्य चकित हो गये और लिंगो को चमत्कारी पुरुषके रूप में देखने लगे। उसका यथेष्ट सम्मान भी किया। तब लिंगो ने उस 'मोह्ट` की बड़ी ही श्रद्घा-भक्ति पूर्वक पूजा की। उसे कुल देवता मान लियाऔर पास ही के जंगल में एक झोपड़ी बना कर बस गया।
लिंगो और उसकीपत्नी ने मिल कर काफी मेहनत की। उनकी मेहनत का फल भी उन्हें मिला। जहांउन्होंने अपना घर बनाया था कालान्तर में एक गाँव के रूप में परिर्तित होगया। समय के साथ लिंगो उस गाँव का ही नहीं बल्कि उस परगने का भी सम्मानितव्यि त बन गया। उस गाँव का नाम हुआ 'वलेक् नार`। 'वलेक्` यानी सेमल और नारयानी गाँव। हल्बी में सेमल को सेमर कहा जाता है। आज इस गाँव को लोगसेमरगाँव के नाम से जानते हैं। इसतरह जब उसकी कीर्ति गाँव के बाहर दूसरे गाँवों तक फैली और उसके भाइयों केकानों तक भी यह बात पहुँची। उसकी प्रगति सुन कर उसके भाइयों को बड़ी पीड़ाहुई। वे द्वेष से भर उठे। उन लोगों ने पुन: लिंगो को मार डालने की योजनाबनायी और वे सब सेमरगाँव आ पहुँचे। उस समय लिंगो घर पर नहीं था। उन्होंनेउसकी पत्नी से पूछा। उसने बताया कि लिंगो काम से दूसरे गाँव गया हुआ है।तब उसके भाई वहाँ से वापस हो गये और अपनी योजना पर अमल करने लगे। उन्होंने 12 बैल गाड़ियों में लकड़ी इकट्ठा की और उसमें आग लगी दी। उनकी योजना थीलिंगो को पकड़ कर लाने और उस आग में झोंक देने की। अभी वे आग लगा कर लिंगोको पकड़ लाने के लिये उसके घर जाने ही वाले थे कि सबने देखा कि लिंगो उसीआग के ऊपर अपने क्त्त् वाद्ययंत्र (1. माँदर, 2. ढुडरा (कोटोड, ठु़डका, कोटोडका), 3. बावँसी (बाँसुरी), 4. माँदरी 5. पराँग, 6. अकुम (तोडी), 7. चिटकोली, 8. गुजरी बड़गा (तिरडुड्डी या झुमका बड़गी या झुमका बड़गा), 9. हुलकी, 10. टुंडोडी (टु़डबु़डी), 11. ढोल, 12. बिरिया ढोल, 13. किरकिचा, 14. कच टेहेंडोर, 15. पक टेहेंडोर, 16. ढुसिर (चिकारा), 17. कीकिड़, 18. सुलु़ड) बजाते हुए नाच रहा है। यह देख कर उन सबको बड़ा आचर्य हुआ। वेथक-हार कर वहाँ से वापस चले गये। वे समझ गये कि लिंगो को मारना सम्भव नहीं।
लिंगोऔर उनके उन छह भाइयों के नाम का उल्लेख डॉ. के. आर. मण्डावी अपने 'पूसकोलांग परब` शीर्षक लेख (बस्तर की जनजातियों के पेन-परब, 2007 : 79) मेंकांकेर अंचल के मुरडोंगरी ग्राम के पटेल एवं खण्डा मुदिया (आँगा देव) केपुजारी श्री धीरे सिंह मण्डावी के हवाले से इस तरह किया है : 1. उसपमुदिया, 2. पटवन डोकरा, 3. खण्डा डोकरा, 4. हिड़गिरी डोकरा, 5. कुपार पाटडोकरा, 6. मड़ डोकरा, 7. लिंगो डोकरा। उनके अनुसार लिंगो पेन तथा उनके छहभाई गोंड जनजाति के सात देव गुरु कहे गये हैं।
लेखक परिचय
जन्म: कटेकुम्भ, दन्तेवाड़ा (बस्तर-छत्तीसगढ़), हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर। मूलत: कथाकार एवं कवि। साहित्य की अन्य विधाओं में भी समान लेखन-प्रकाशन। सम्पूर्ण लेखन-कर्म बस्तर पर केन्द्रित। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानी-कविता के साथ-साथ महत्वपूर्ण शोधपरक रचनाएँ व किताबें प्रकाशित। सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यत्रऎम के अन्तर्गत आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैण्ड तथा इटली प्रवास। पता: सरगीपाल पारा, कोंडागाँव ब्ेब्ख्ख्म्, बस्तर-छत्तीसगढ़।
वो बस्तर के घने जंगलों में रहती है और बोलती है बिल्कुल इंसानों सा ही है। दिनों-दिन उसके संख्या कम होती जा रही है। मुश्किल से अब उसकी संख्या सैकड़ों तक पहुंचेगी। धीरे-धीरे शायद वो विलुप्त हो जाए। उसकी संख्या बढ़ाने के सरकारी प्रयास भी लगभग असफल ही हुए हैं।
जी हां। सही पहचाना आपने, हम बात कर रहे हैं बस्तर की दुर्लभ पहाड़ी मैना की। पहाड़ी मैना छत्तीसगढ़ की राजकीय पक्षी भी है। बोलती है तो ऐसा लगता ही नहीं कि कोई पक्षी बोल रहा हो। आप जो बोलिए आपकी बोली की हू-बहू नकल हाजिर कर देगी वो। खुले आसमान में चहचहाती, उड़ती, स्वच्छंद पीली चोंच वाली काली मैना की खुबसूरती ही उसकी दुश्मन बनी। बस्तर के वनवासियों का प्रिय भोजन होने के कारण उसकी संख्या लगातार घटने लगी है। सरकार को देर से सही उसके विलुप्त होने का खतरा नज़र आया और उसने लगभग 2 दर्जन पहाड़ी मैना जंगलों से लाकर उसका प्रजनन बढ़ाने की योजना पर काम शुरू किया है।
इस बात को भी सालों हो गए लेकिन अब तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आया है। जगदलपुर से महज 3-4 कि.मी. दूर वन विभाग ने साल के कुछ पेड़ों को चेनलिंक फेन्सिंग के जरिए प्राकृतिक रूप से पिंजरे का आकार दिया है और उसमें कुछ पहाड़ी मैना को रखा गया है। यहां बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के एक प्रभावशाली नेता ने उन्हें देखा और जब वे लौट रहे थे तो किसी पहाड़ी मैना ने गाली दे दी थी। सब हक्के-बक्के रह गए थे और इस बीच पेड़ों पर से दोबारा वो गाली की आवाज़ आई। तब सबको मामला समझ में आया। पहाड़ी मैना वन कर्मचारियों की गालियां सुनकर सीख चुकी थी और उसे दोहराती भी थी। नेताजी नाराज़ भी हुए और पहाड़ी मैना की नकल करने की क्वालिटी से प्रभावित भी हुए। उन्होंने सबको जमकर फटकार लगाई और ठीक से इंतजाम करने के निर्देश दिए।
बस्तर के साल वनों में काफी भीतर कभी-कभार पहाड़ी मैना दिख ज़रूर जाती है, लेकिन ये अब लगता है विलुप्त होने की कगार पर है। यही हाल रहा तो बहुत ज़्यादा दिन बाकी नहीं रहे जब लोग कहा करेंगे कि बस्तर में पहाड़ी मैना मिला करती थी। वो हू-बहू इंसानों की तरह बोलती थी। हालाकि राजकीय पक्षी घोषित होने के बाद उसकी सुध ली जा रही है, मगर सरकारी काम कैसा होता है ये सबको पता है। लगभग 39 हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैला बस्तर जि़ला 1999 में 2 हिस्सों में बांटा गया था और अब ये बस्तर, कांकेर, बीजापुर, नारायणपुर और दंतेवाड़ा जिलों में बंटा हुआ है। पहले दक्षिण बस्तर के जंगलों के अलावा भी पहाड़ी मैना दिख जाया करती थी, लेकिन अब सरायपाली, बसना और सिहावा नगरी के इलाकों से ये विलुप्त ही हो चुकी है।
प्रकृति की अद्भूत देन इस पहाड़ी मैना को विलुप्त होने से पहले देखने की इच्छा अगर आपकी है तो चले आईए बस्तर। तकदीर अच्छी रही, तो आपको पहाड़ी मैना आपकी तरह ही बोलती दिखाई दे जाएगी।
अनिल पुसदकर छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं । उनसे anil.pusadkar@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
तब शायद मेरी उम्र आठ वर्ष के लगभग रही होगी। स्कूल से पिकनिक पर पूरे हुजूम के साथ कोटुमसर जाना हुआ था। घने जंगलों से होती हुई हमारी बस एक गुफा के मुहाने के पास रुकी। बस से पैट्रोमेक्स उतारे गये, सभी नें हाँथों में सर्च लाईटें थाम ली थीं लेकिन साथ ही बच्चों को गुफा के भीतर न जाने की हिदायत दे दी गयी। मैं गुफा के किनारे खडा एक एक कर सभी को उस अधेरी खोह में जाते देखता रहा। एक सीधा कुँआ सा जिसमें लोहे की सीढी से उतर कर फिर बैठ कर रेंगते हुए उस सुरंग में एक एक कर सभी ओझल हो गये और मैं कल्पनाओं में विचरता रहा। रास्ते में मास्टरजी नें बताया था कि यह कोई साधारण गुफा नहीं अपितु भारत की सबसे बडी और विश्व की सातवीं सबसे बडी प्राकृतिक गुफा है। मेरी कल्पना में इसकी लम्बाई चौडाई का अनुमान तो नहीं था किंतु बाल मन इसे कभी अपनी कल्पनाओं में डाकुओं का अड्डा समझता तो कभी किसी राक्षस का घर...फिर सभी के लौटने में होने वाली देरी से घबराहट, आशंकाये और जिज्ञासा तीनों ही बढने लगी थी। लगभग एक घंटे के बाद सभी गुफा से बाहर लौटे तो पसीने से तर-बतर थे। सभी के चेहरे से रोमांच टपक पडता था। गुफा के रहस्यों की अनगिनत कहानियाँ जितने मुख उतनी बातों सुनीं। यह गुफा मेरे अवचेतन में बहुत सी अनगढ कहानियों की तरह रही जिसपर से पर्दा तब उठा जब मैं जगदलपुर में अपनी स्नातक की पढाई करने आया और हॉस्टल में रहने लगा।
जैसे को तैसे लोग मिल ही जाते हैं। हम आठ मित्र सायकल लिये जगदलपुर से निकले कुटुमसर गुफा के रहस्य-रोमांच से परिचित होनें। पिकनिक की पिकनिक और एडवेंचर का एडवेंचर। जगदलपुर से पैतीस किलोमीटर की सायकलिंग अधिकतम मार्ग मैदाने होने के कारण कठिन नहीं थी किंतु कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करते ही प्रकृति अपनी सुन्दरतम छटाओं से स्वागतातुर हो उठी। घने दरखतों, चंचल लताओं, शोर करते झरनों और चुहुल करते परिंदों के बीच पहुँचते ही रास्ते की थकान काफुर हो गयी थी। कोटुमसर गाँव पहुँच कर हम कुछ सुस्ताने के लिये रुके। गर्मागरम चाय भजिये के साथ खाने के साथ खुली हवा में गहरी गहरी स्वाँसे ले कर अहसास होने लगा कि क्यों प्रकृति को माता कहा जाता है।
कोटुमसर गाँव से लगभग तीन किलोमीटर और हमें चलना था जहाँ गुपनसर पहाडी की तलहटी में प्रसिद्ध कोटुमसर गुफा अवस्थित है। हमनें काँगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के चैकपोस्ट्स से गाईड लेना ही उचित समझा। गाईड नें अपना पैट्रोमैक्स साथ ले लिया था। हम सभी मित्र सर्च लाईट ले कर ही चले थे, यानी कि हमारी तैयारी इस रहस्य को समझने के लिये पूरी थी। गाईड नें हमें बताया कि इस गुफा की लंबाई लगभग 4500 फीट तथा गुफा के मुहाने से धरातल की गहराई लगभग 60 से 215 फीट तक है। बचपन की वह पिकनिक मेरी स्मृतियों में पुन: जी उठी जहाँ से अनेकों प्रश्न और जिज्ञासायें अब तक मेरे साथ रही थीं और उन सभी का उत्तर मुझे आज मिलने वाला था।
उपर से नीचे झाँकते ही एक बार को मन में डर समा गया। सीधी ढाल और गहरा अंधकार..मैंने सर्चलाईट से निरीक्षण किया किंतु केवल घुप्प सन्नाटा और गहरा अंधकार। हम सभी संभल संभल कर उतरने लगे। गाईड आगे आगे बढता हुआ हमारा हौसला भी बढा रहा था। लगभग पचपन फीट नीचे उतरने के बाद हम समतल धरातल पर थे। जैसे किसी विशाल कक्ष में पहुँच गये हों। एसा प्रतीत होता था जैसे किसी तिलिस्म का रहस्योद्घघाटन होना हो। गुफा में चारो ओर से पानी रिस रहा था और ऑक्सीजन के कम होने का आभास भी होने लगा था। हम सभी की सर्चलाईटे गुफा की दीवारों पर यत्र तत्र रोशनी के गोले बनाने लगीं। आठ सर्चलाईट और एक पट्रोमेक्स भी उस गुफा के अंधकार का भेदन करने में अपर्याप्त था अपितु प्रतीत होता था कि हम दीपक ले कर अंधेरे में अंदाजे से आगे बढ रहे हैं।
सफेद पत्थरों की झालरों नें एकाएक आँखें विस्मय से चौडी कर दीं उनपर प्रकाश पडते ही लगा जैसे किसी आलीशान महल से काँच की झालरें लटकी हों। फिर जमीन से उपर उठती वैसी ही संरचनाए....वस्तुत: चूनापत्थर (लाईमस्टोन) ने पानीकेसाथक्रियाकरनेकेबादगुफाकीदरारोंसेरिसरिसकरस्टेलेक्टाईटअथवाआश्चुताश्म (दीवारसेनीचेकीओरलटकीचूनापत्थरकीरचना: छतसेरिसताहुवाजलधीरे-धीरेटपकतारहताहैं।इसजलमेंअनेकपदार्थघुलेरहतेहैं।अधिकतापकेकारणवाष्पीकरणहोनेपरजलसूखनेलगताहैंतथागुफाकीछतपरपदार्थोंजमाहोनेलगताहैं।इसनिक्षेपकीआक्र्तिपरलेस्तंभकीतरहहोतीहैंजोछतसेनीचेफर्शकीओरविकसितहोतेहैं)। स्टेलेक्माईट अथवा निश्चुताश्म (जमीन से दीवार की ओर उठी चूना पत्थर की संरचना: छत से टपकता हुवा जल फर्शपर धीरे-धीरे एकत्रित होता रहता हैं । इससे फर्श पर भी स्तंभ जैसी आकृतिबनने लगती हैं। यह विकसित होकर छत की ओर बड़ने लगती हैं) औरपिलरअथवास्तंभ (जबस्टेलेक्टाईटऔरस्टेलेक्माईटमिलजातेहैं) संरचनायेंबनायीहैं। प्रकृति की इस अनोखी रचना को देख कर आँखों को यकीन करना पडा कि पाताललोक न केवल रहस्यमय है बल्कि सुन्दरता में भी इसका कोई सानी नहीं।
एकाएक गाईड नें एक स्थल पर हमें रोक दिया और नीचे झुक कर देखने को कहा। बहते हुए पानी में लगभग दो इंच की मछलियों का एक झुंड सा दिखा। हम यह जान कर आश्चर्यचकित हो उठे कि यह प्रजाती विश्वभर में अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं। इसगुफामेंखासदेखीजानेयोग्यहैयह बिनाआँखकीमछली – “कैपिओलाशंकराई”।इसमछलीकानामउसकेखोजीडॉ. शंकरतिवारीकेनामपरपडगयाथा।मछलियोंमेंआँखकानहोनागुफाकेभीतररोशनीकेनहोनेकेकारणहै।हम हर्षित थे कि हमने इस दुर्लभ जीव और उसकी चंचलता को इतने करीब से महसूस किया जिसे देख पाना ही एक अनुभव है।
एकाएक मैं लडखडाया और मेरा हाँथ पास के प्राकृतिक चूने पत्थर निर्मित श्वेत स्तंभ से टकर गया। एल मोहक सी ध्वनि गूँज उठी जैसे संगीत का कोई वाद्ययंत्र बज उठा हो। फिर क्या था मैंने आसपास के स्तंभों से एसी ही ध्वनियाँ निकालने का यत्न किया और खामोशी संगीतमय हो उठी। कभी जलतरंग बज उठते तो कभी मानों ढोलक की थाप सुनाई पडती। गाईड नें हमें विस्तार से इस प्राकृतिक चमत्कार से अवगत कराया। यहाँ के पत्थर पत्थर बोलते हैं, बज उठते हैं झूमते हैं....मुझे ज्ञात था कि आकाशवाणी जगदलपुर नें 1985 में इन्ही बोलते-बज उठते पाषाणों को रिकॉर्ड कर संगीतमय कार्यक्रम बनाया था जो बहुत चर्चित रहा था।
कभी आश्चर्यचकित होते तो कभी रोमांचित होते या कभी भयभीत होते हम गुफाकेउस अंतिमछोरतक पहुचे जिसके आगे पर्यटकों को जाने की अनुमति नहीं है। यहाँ परएकस्टेलेक्माईटकास्वरूपशिवलिंगकीतरहहै, पर्यटकवहापहुँचकरपूजन-अर्चन भीकरतेहैं। यह जन श्रुति है कि इन गुफाओं में देवता वास करते हैं और यहाँ पहुचना एक तीर्थ करने सदृश्य है। केवल पुण्यात्मा ही यहाँ पहुँच सकते हैं एसी मान्यता है।
गुफा के बाहर आते ही आँखें तीखी रोशनी से चौंधिया उठीं। कुछ पल ठहर कर ही आँखें पूरी खोली जा सकीं। चारों ओर घने जंगल के बीच खडा मैं मुश्किल से यकीन कर सका था कि किसी दूसरी दुनियाँ से हो कर लौटा हूँ और एसे अनुभवों के साथ जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। तब से अनेकों बार इस गुफा में हो आया हूँ किंतु हर बार इस गुफा के भीतर रहस्य का समंदर मिलता है, मैं दो चार लहरों से खेल कर लौट आता हूँ और फिर...यहाँ प्रचलित लोकगीत है “आमचो बस्तर किमचो सुन्दर किमचो भोले भाले रे” और यही सच है कि अपने बस्तरिया होने पर इसी लिये मुझे गर्व है।
पर्यटन की दृष्टि से यहाँ पहुचना कोई कठिन भी नहीं। रायपुर छतीसगढ की राजधानी है और यहाँ से जगदलपुर सडक मार्ग द्वारा लगभग सात घंटे में पहुँचा जा सकता है। जगदलपुर में हर स्तर और सुविधा के होटल उपलब्ध हैं। जहाँ से निजी वाहन द्वारा इस स्थल की सैर करने का रोमांच लिया जा सकता है। बस्तर की हरी धरती स्वागत करती है अपने आगंतुकों का, इसकी सादगी से परिचित हो कर जाने वाले कभी भी अपने अनुभव विस्मृत नहीं कर सकेंगे।
हजारों-हजार साल का जिन्दा इतिहास हूं मैं, मुझे बस्तर कहते हैं। जैव विविधता को अपने में समेटे। कहते हैं मैं हजारों-हजार साल एक साथ जीता हूं, आज मेरे बच्चे हजार साल पुरानी संस्कृति भी जीते हैं तो आज की आधुनिक संस्कृति भी। पहाड़ी मैना भी मेरा ही अंश है तो प्रकृति की देन वह खूबसूरती भी जिसे निहारने देश-दुनिया से लोग आते हैं।
निवेदन
यह ब्लॉग उन सभी के लिए है जो हिंसा-प्रतिहिंसा से दूर बस्तर को उसकी खूबसूरती, उसकी नैसर्गिकता, उसकी संस्कृति के लिए चाहते हैं। आप चाहें एक पाठक हो या लेखक, या फिर जो महसूस किया उसे शब्दों में बांधने की क्षमता अगर आपके पास हो तो स्वागत है आपका यहां। बस्तर पर आपके संस्मरणों का। हिंसा-प्रतिहिंसा के मुद्दे से हटकर सिर्फ बस्तरिहा सौंदर्य, कला-संस्कृति और बस्तर पर।