Tuesday, August 26, 2008

पाताललोक कोटुमसर का रोमांच, तिलिस्म और रहस्य

तब शायद मेरी उम्र आठ वर्ष के लगभग रही होगी। स्कूल से पिकनिक पर पूरे हुजूम के साथ कोटुमसर जाना हुआ था। घने जंगलों से होती हुई हमारी बस एक गुफा के मुहाने के पास रुकी। बस से पैट्रोमेक्स उतारे गये, सभी नें हाँथों में सर्च लाईटें थाम ली थीं लेकिन साथ ही बच्चों को गुफा के भीतर न जाने की हिदायत दे दी गयी। मैं गुफा के किनारे खडा एक एक कर सभी को उस अधेरी खोह में जाते देखता रहा। एक सीधा कुँआ सा जिसमें लोहे की सीढी से उतर कर फिर बैठ कर रेंगते हुए उस सुरंग में एक एक कर सभी ओझल हो गये और मैं कल्पनाओं में विचरता रहा। रास्ते में मास्टरजी नें बताया था कि यह कोई साधारण गुफा नहीं अपितु भारत की सबसे बडी और विश्व की सातवीं सबसे बडी प्राकृतिक गुफा है। मेरी कल्पना में इसकी लम्बाई चौडाई का अनुमान तो नहीं था किंतु बाल मन इसे कभी अपनी कल्पनाओं में डाकुओं का अड्डा समझता तो कभी किसी राक्षस का घर...फिर सभी के लौटने में होने वाली देरी से घबराहट, आशंकाये और जिज्ञासा तीनों ही बढने लगी थी। लगभग एक घंटे के बाद सभी गुफा से बाहर लौटे तो पसीने से तर-बतर थे। सभी के चेहरे से रोमांच टपक पडता था। गुफा के रहस्यों की अनगिनत कहानियाँ जितने मुख उतनी बातों सुनीं। यह गुफा मेरे अवचेतन में बहुत सी अनगढ कहानियों की तरह रही जिसपर से पर्दा तब उठा जब मैं जगदलपुर में अपनी स्नातक की पढाई करने आया और हॉस्टल में रहने लगा।

जैसे को तैसे लोग मिल ही जाते हैं। हम आठ मित्र सायकल लिये जगदलपुर से निकले कुटुमसर गुफा के रहस्य-रोमांच से परिचित होनें। पिकनिक की पिकनिक और एडवेंचर का एडवेंचर। जगदलपुर से पैतीस किलोमीटर की सायकलिंग अधिकतम मार्ग मैदाने होने के कारण कठिन नहीं थी किंतु कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करते ही प्रकृति अपनी सुन्दरतम छटाओं से स्वागतातुर हो उठी। घने दरखतों, चंचल लताओं, शोर करते झरनों और चुहुल करते परिंदों के बीच पहुँचते ही रास्ते की थकान काफुर हो गयी थी। कोटुमसर गाँव पहुँच कर हम कुछ सुस्ताने के लिये रुके। गर्मागरम चाय भजिये के साथ खाने के साथ खुली हवा में गहरी गहरी स्वाँसे ले कर अहसास होने लगा कि क्यों प्रकृति को माता कहा जाता है।

कोटुमसर गाँव से लगभग तीन किलोमीटर और हमें चलना था जहाँ गुपनसर पहाडी की तलहटी में प्रसिद्ध कोटुमसर गुफा अवस्थित है। हमनें काँगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के चैकपोस्ट्स से गाईड लेना ही उचित समझा। गाईड नें अपना पैट्रोमैक्स साथ ले लिया था। हम सभी मित्र सर्च लाईट ले कर ही चले थे, यानी कि हमारी तैयारी इस रहस्य को समझने के लिये पूरी थी। गाईड नें हमें बताया कि इस गुफा की लंबाई लगभग 4500 फीट तथा गुफा के मुहाने से धरातल की गहराई लगभग 60 से 215 फीट तक है। बचपन की वह पिकनिक मेरी स्मृतियों में पुन: जी उठी जहाँ से अनेकों प्रश्न और जिज्ञासायें अब तक मेरे साथ रही थीं और उन सभी का उत्तर मुझे आज मिलने वाला था।

उपर से नीचे झाँकते ही एक बार को मन में डर समा गया। सीधी ढाल और गहरा अंधकार..मैंने सर्चलाईट से निरीक्षण किया किंतु केवल घुप्प सन्नाटा और गहरा अंधकार। हम सभी संभल संभल कर उतरने लगे। गाईड आगे आगे बढता हुआ हमारा हौसला भी बढा रहा था। लगभग पचपन फीट नीचे उतरने के बाद हम समतल धरातल पर थे। जैसे किसी विशाल कक्ष में पहुँच गये हों। एसा प्रतीत होता था जैसे किसी तिलिस्म का रहस्योद्घघाटन होना हो। गुफा में चारो ओर से पानी रिस रहा था और ऑक्सीजन के कम होने का आभास भी होने लगा था। हम सभी की सर्चलाईटे गुफा की दीवारों पर यत्र तत्र रोशनी के गोले बनाने लगीं। आठ सर्चलाईट और एक पट्रोमेक्स भी उस गुफा के अंधकार का भेदन करने में अपर्याप्त था अपितु प्रतीत होता था कि हम दीपक ले कर अंधेरे में अंदाजे से आगे बढ रहे हैं।

सफेद पत्थरों की झालरों नें एकाएक आँखें विस्मय से चौडी कर दीं उनपर प्रकाश पडते ही लगा जैसे किसी आलीशान महल से काँच की झालरें लटकी हों। फिर जमीन से उपर उठती वैसी ही संरचनाए....वस्तुत: चूनापत्थर (लाईम स्टोन) ने पानी के साथ क्रिया करने के बाद गुफा की दरारों से रिस रिस कर स्टेलेक्टाईट अथवा आश्चुताश्म (दीवार से नीचे की ओर लटकी चूना पत्थर की रचना: छत से रिसता हुवा जल धीरे-धीरे टपकता रहता हैं। इस जल में अनेक पदार्थ घुले रहते हैं। अधिक ताप के कारण वाष्पीकरण होने पर जल सूखने लगता हैं तथा गुफा की छत पर पदार्थों जमा होने लगता हैं इस निक्षेप की आक्र्ति परले स्तंभ की तरह होती हैं जो छत से नीचे फर्श की ओर विकसित होते हैं)स्टेलेक्माईट अथवा निश्चुताश्म (जमीन से दीवार की ओर उठी चूना पत्थर की संरचना: छत से टपकता हुवा जल फर्श पर धीरे-धीरे एकत्रित होता रहता हैं । इससे फर्श पर भी स्तंभ जैसी आकृति बनने लगती हैं। यह विकसित होकर छत की ओर बड़ने लगती हैं) और पिलर अथवा स्तंभ (जब स्टेलेक्टाईट और स्टेलेक्माईट मिल जाते हैं) संरचनायें बनायी हैं। प्रकृति की इस अनोखी रचना को देख कर आँखों को यकीन करना पडा कि पाताललोक न केवल रहस्यमय है बल्कि सुन्दरता में भी इसका कोई सानी नहीं।

एकाएक गाईड नें एक स्थल पर हमें रोक दिया और नीचे झुक कर देखने को कहा। बहते हुए पानी में लगभग दो इंच की मछलियों का एक झुंड सा दिखा। हम यह जान कर आश्चर्यचकित हो उठे कि यह प्रजाती विश्वभर में अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं। इस गुफा में खास देखी जाने योग्य है यह बिना आँख की मछली – “कैपिओला शंकराई इस मछली का नाम उसके खोजी डॉ. शंकर तिवारी के नाम पर पड गया था। मछलियों में आँख का होना गुफा के भीतर रोशनी के होने के कारण है। हम हर्षित थे कि हमने इस दुर्लभ जीव और उसकी चंचलता को इतने करीब से महसूस किया जिसे देख पाना ही एक अनुभव है।

एकाएक मैं लडखडाया और मेरा हाँथ पास के प्राकृतिक चूने पत्थर निर्मित श्वेत स्तंभ से टकर गया। एल मोहक सी ध्वनि गूँज उठी जैसे संगीत का कोई वाद्ययंत्र बज उठा हो। फिर क्या था मैंने आसपास के स्तंभों से एसी ही ध्वनियाँ निकालने का यत्न किया और खामोशी संगीतमय हो उठी। कभी जलतरंग बज उठते तो कभी मानों ढोलक की थाप सुनाई पडती। गाईड नें हमें विस्तार से इस प्राकृतिक चमत्कार से अवगत कराया। यहाँ के पत्थर पत्थर बोलते हैं, बज उठते हैं झूमते हैं....मुझे ज्ञात था कि आकाशवाणी जगदलपुर नें 1985 में इन्ही बोलते-बज उठते पाषाणों को रिकॉर्ड कर संगीतमय कार्यक्रम बनाया था जो बहुत चर्चित रहा था।

कभी आश्चर्यचकित होते तो कभी रोमांचित होते या कभी भयभीत होते हम गुफा के उस अंतिम छोर तक पहुचे जिसके आगे पर्यटकों को जाने की अनुमति नहीं है। यहाँ पर एक स्टेलेक्माईट का स्वरूप शिवलिंग की तरह है, पर्यटक वहा पहुँच कर पूजन-अर्चन भी करते हैं। यह जन श्रुति है कि इन गुफाओं में देवता वास करते हैं और यहाँ पहुचना एक तीर्थ करने सदृश्य है। केवल पुण्यात्मा ही यहाँ पहुँच सकते हैं एसी मान्यता है।

गुफा के बाहर आते ही आँखें तीखी रोशनी से चौंधिया उठीं। कुछ पल ठहर कर ही आँखें पूरी खोली जा सकीं। चारों ओर घने जंगल के बीच खडा मैं मुश्किल से यकीन कर सका था कि किसी दूसरी दुनियाँ से हो कर लौटा हूँ और एसे अनुभवों के साथ जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। तब से अनेकों बार इस गुफा में हो आया हूँ किंतु हर बार इस गुफा के भीतर रहस्य का समंदर मिलता है, मैं दो चार लहरों से खेल कर लौट आता हूँ और फिर...यहाँ प्रचलित लोकगीत है आमचो बस्तर किमचो सुन्दर किमचो भोले भाले रे और यही सच है कि अपने बस्तरिया होने पर इसी लिये मुझे गर्व है।

पर्यटन की दृष्टि से यहाँ पहुचना कोई कठिन भी नहीं। रायपुर छतीसगढ की राजधानी है और यहाँ से जगदलपुर सडक मार्ग द्वारा लगभग सात घंटे में पहुँचा जा सकता है। जगदलपुर में हर स्तर और सुविधा के होटल उपलब्ध हैं। जहाँ से निजी वाहन द्वारा इस स्थल की सैर करने का रोमांच लिया जा सकता है। बस्तर की हरी धरती स्वागत करती है अपने आगंतुकों का, इसकी सादगी से परिचित हो कर जाने वाले कभी भी अपने अनुभव विस्मृत नहीं कर सकेंगे।


*** राजीव रंजन प्रसाद

Saturday, August 23, 2008

यह है बस्तर

बस्तर,छत्तीसगढ़ से बाहर देश ही नही विदेशों में भी इस जगह का नाम बहुत से लोग जानते हैं। कुछ इसलिए जानते हैं क्योंकि यहां का प्राकृतिक सौंदर्य अतुलनीय है तो कुछ लोग इसलिए जानते हैं कि यह जगह वर्तमान नक्सलवाद की प्रयोगशाला बन चुकी है। चंद लोग इसलिए भी जानते हैं क्योंकि यहां आदिवासी संस्कृति अब भी कायम है। वहीं शिल्पप्रेमी इसलिए जानते हैं क्योंकि बस्तरिहा शिल्प अपने आप में बेजोड़ है तो कुछ लोगों के लिए अपने ड्राईंगरूम में सजाए जाने वाली कृतियों का ही नाम बस्तर है। तो आइए जानें बस्तर को, राज्य के पर्यटन विभाग द्वारा प्रकाशित ब्रोशर के मुताबिक।


बस्तर
छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर की सीमाएं उड़ीसा, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश की सीमाओं को छूती है। यहां का लगभग 60 फीसदी हिस्सा हरे-भरे जंगलों, पश्चिमोत्तर भाग ऐतिहासिक अबूझमाड़ी, आदिवासी पहाड़ियों व दक्षिणी हिस्सा बैलाडीला की खनिज खदानों से घिरा हुआ है। कांगेर वैली राष्ट्रीय उद्यान का फैला हुआ घना एवं भयानक जंगल, विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, प्राचीन एवं रहस्यमयी गुफाएं, सुंदर जलप्रपात और नदियां, जैववैज्ञानिकों, रोमांचकारी खेलों के शौकीन व कलाकारों के लिए स्वर्ग समान है। मां दंतेश्वरी,बस्तर राजघराने की देवी हैं। कहा जाता है कि देवी इन घने पहाड़ी जंगलों मे राजा की रक्षा करते हुए उसका मार्गदर्शन करती है। दशहरा बस्तर का सबसे बड़ा, भव्य व प्रमुख त्यौहार है। मगर इसका श्रीराम अथवा उनके अयोध्या लौटने से कोई संबंध नही है। यह पर्व दंतेश्वरी देवी को समर्पित होता है। प्रकृति यहां आपको अपने संपूर्ण रूप में स्वागत करती हुई सी प्रतीत होगी।


बस्तर की जनसंख्या में करीब तीन चौथाई लोग जनजातियों के हैं जिसमें से हर एक की अपनी मौलिक संस्कृति मान्यताएं, बोलियां रीति-रिवाज और खान-पान की आदतें हैं। बस्तर की जनजातियों में गोंड जैसे- मरिया, मुरिया, अबूझमाड़ी,धुरवा(परजा) और डोरिया शामिल है। साथ ही अन्य समूह जो कि गोंड नही है जैसे भतरा और हल्बा शामिल हैं। आप बस्तर में कहीं भी घूम रहें हों, हाट( स्थानीय बाजार) की ओर जाते हुए जनजातीय लोगों को उनकी वेशभूषा में पूर्ण सजे-धजे देख सकते हैं। गोंड जाति की सबसे महत्वपूर्ण उपजनजाति अबूझमाड़ी शर्मीले व संकोची होते हैं। नृत्य महोत्सव के दौरान सींगों से सजे मुकुट पहनने के लिए जाने जानी वाली जनजाति मड़िया सामाजिक होती है। उत्तरी बस्तर की खेती किसानी करने वाली मुरिया जनजाति सबसे अधिक व्यवस्थित होती है व घोटुल के कारण जानी जाती है। यह युवा एवं कुंवारे लड़के-लड़कियों के लिए एक विशेष स्थान होता है जहां वे बड़ों से दूर आपस में मिल सकते हैं। यहां उनकी सामाजिक शिक्षा की खास व्यवस्था होती है जिसमें नृत्य, गीत-संगीत आदि भी शामिल होते हैं। यह प्रथा मुरिया समाज का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।

बस्तर की सदियों पुरानी परंपराएं साधारण व जटिल कलाकृतियों को चिन्हित करती है। इन कलाकृतियों को आकार देने वाले कारीगर प्राकृतिक संसार से प्रेरित होते हैं। बस्तर की सुंदरता, कला की प्राचीनता व आधुनिकता के सम्मिश्रण में निहित हैं। कला पारखियों में बस्तर कला की लोकप्रियता बढ़ने का कारण इसमें हड़प्पा और सिंधु सभ्यता का प्रभाव है। कोंडागांव,नारायणपुर व जगदलपुर टेराकोटा कला के लिए प्रसिद्ध है। जगदलपुर कोसा सिल्क बुनाई के लिए प्रसिद्ध है। बेल मेटल व रॉट आयरन की कारीगरी कोंडागांव और जगदलपुर की विशेषता है। लकड़ी और बांस का सर्वश्रेष्ठ कार्य नारायणपुर व जगदलपुर में देखा जा सकता है। बस्तर की सबसे पुरानी हस्तकलाओं में स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रयोग किए जाने वाले नक्काशीदार पत्थर भी शामिल है। नारायणपुर के हस्तकला केन्द्र अथवा शिल्पग्राम में आप कुछ अनुपम कलाकृतियां चुन सकते हैं। बस्तर के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए हाट (स्थानीय बाजार) जो कि पूरे बस्तर में करीब 300 हैं, का भ्रमण करना चाहिए। यहां पर आदिवासी जंगल से एकत्रित की गई वस्तुओं के स्थान पर नमक, तंबाखू, कपड़े व अन्य दैनिक उपभोग की वस्तुएं खरीदते हैं।

धान के विस्तृत खेत, पगडंडीहीन वनों के मनोरम दृश्य, पशु-पक्षियों की अद्भुत प्रजातियां, नदियां, झरने एवं प्राचीन गुफाएं-बस्तर को प्रकृति प्रेमियों का स्वर्ग बनाती है। यह दुर्गम-दुर्लभ भूमि एक सुखद आश्चर्य है। उच्च प्रजाति के वृक्षों से सजी यह वन्य भूमि अनेक भागों में विभक्त होती है। यह वन संरक्षित जंगली भैंसे,शेर, तेन्दुआ, उल्लू,और भांति-भांति के पशु-पक्षियों के लिए जैसे लुप्तप्राय: बस्तरिहा पहाड़ी मैना के लिए घर है।

किसी भी जैव विज्ञानी के लिए कांगेर वैली नेशनल पार्क एक शोध का विषय है। इन दुर्गम वनों के अनोखे पर्यावरण के संरक्षण के लिए बायोस्फियर संरक्षित स्थान का प्रस्ताव है। यह घाटी सुंदर और महमोहक दृश्यों, आकर्षक जलप्रपातों, नदियों आदि एवं प्राचीन गुफाओं के लिए जानी जाती है। उनके लिए जो भय प्रकृति का आनंद लेते हैं और प्राकृतिक गतिविधियों से आल्हादित होते हैं,पदयात्रा,पर्वतारोहण,अदम्य गुफाओं की खोज जैसे अनेक आकर्षण आकर्षित करते हैं। कुटुम्बसर, कैलाश एवं दंडक गुफाओं में स्टैल्गमाईट और स्टैलेसाइट (चूने के स्तंभ) आकर्षण का केन्द्र है।

सौ फीट की ऊंचाई से गिरते तीरथगढ़ जलप्रपात का पारदर्शी बहाव हम सबका ध्यान आकर्षित करता है। इंद्रावती नदी से निर्मित चित्रकोट जलप्रपात नियाग्रा की याद दिलाता है। इन स्थानों की यात्रा के साथ ही बस्तर की आदिवासी संस्कृति को समझने के के लिए मानव संग्रहालय भी देखा जा सकता है।

देवी-देवताओं पर आस्था रखने वालों को जहां दंतेवाड़ा स्थित माई दंतेश्वरी का देवालय सुकून और शांति प्रदान करता है वहीं प्राचीन और पुरातत्व प्रेमियों के लिए बारसूर का गणेश मंदिर, मामा-भांजा मंदिर, नारायणपुर का विष्णु मंदिर, भद्रकाली का मंदिर तथा पुजारी कांकेर के धर्मराज का मंदिर भी आकर्षण का केन्द्र है। पुरातत्व के शोधकर्ताओं के लिए कई गांवो में अटूट पुरातात्विक संपदा बिना उत्खनन के पड़ी है। अनेक अज्ञात टीले आज भी रहस्य बने हुए हैं।


बस्तर के अंतर्गत दर्शनीय जगहें--
कांकेर,केशकाल,गढ़धनौरा, नारायणपाल,भोंगापाल, समलूर, चिंगीतराई, बड़े डोंगर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा, बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना,बारसूर,हांदावाड़ा जलप्रपात,बीजापुर,भैरमगढ़,कोण्डागांव,जगदलपुर, चित्रकोट,कांगेरघाटी राष्ट्रीय उद्यान।

कैसे पहुंचे बस्तर-
वायु मार्ग:- रायपुर (295किलोमीटर) निकटतम हवाई अड्डा है जो कि मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची,विशाखापट्नम और चेन्नई से जुड़ा हुआ है।

रेल मार्ग-
रायपुर ही निकटतम रेल्वे जंक्शन है।
सड़क मार्ग-
रायपुर से निजी वाहन एवं यात्री वाहन पर्यटकों के लिए उपलब्ध हैं।

और अधिक जानकारी के लिए संपर्क-
छत्तीसगढ़ पर्यटन मण्डल
पर्यटन भवन, जी ई रोड
रायपुर, छत्तीसगढ़
492006
फोन- +91-771-4066415



मूल आलेख:संजय सिंह। तस्वीर सौजन्य रुपेश यादव फोटोग्राफर। सभी तस्वीरों पर कॉपीराईट रुपेश यादव का है जो वर्तमान में रायपुर के अंग्रेजी दैनिक हितवाद से जुड़े हुए हैं।

Friday, August 8, 2008

बरसात में बस्तर

बरसात में बस्तर

अंबरीश कुमार

कांकेर के आगे बढ़ते ही तेजी से दिन में ही अंधेरा छा गया था। सामने थी केशकाल घाटी जिसके घने जंगलों में सड़क आगे जाकर खो जाती है। साल, आम, महुआ और इमली के बड़े दरख्त के बीच सुर्ख पलाश के हरे पेड़ हवा से लहराते नजर आते थे। जब तेज बारिश की वजह से पहाड़ी रास्तों पर चलना असंभव हो गया तो ऊपर बने डाक बंगले में शरण लेनी पड़ी। कुछ समय पहले ही डाक बंगले का जीर्णोद्घार हुआ था इसलिए किसी तीन सितारा रिसार्ट का यह रूप लिए हुए था। शाम से पहले बस्तर पहुंचना था इसलिए चाय पीकर बारिश कम होते ही पहाड़ से नीचे चल पड़े। बस्तर के नक्सल प्रभावित इलाकों में अब यह क्षेत्र भी शामिल हो चुका है और पीपुल्स वार (अब माओवादी) के कुछ दल इधर भी सक्रिय हैं। केशकाल से आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे आम के घने पेड़ों की कतार दूर तक साथ चलती है तो बारिश में नहाये शाल के जंगल साथ-साथ चलते हैं, कभी दूर तो कभी करीब आ जाते हैं। जंगलों की अवैध कटाई के चलते अब वे उतने घने नहीं हैं जितने कभी हुआ करते थे।


कोण्डागांव पीछे छूट गया था और बस्तर आने वाला था। आज भी गांव है, वह भी एक छोटा सा गांव। जिला मुख्यालय जगदलपुर है जो ग्रामीण परिवेश वाला आदिवासी शहर है। बस्तर का पूरा क्षेत्र अपने में दस हजार साल का जिन्दा इतिहास संजोए हुए है। हम इतिहास की यात्रा पर बस्तर पहुंच चुके थे। दस हजार साल पहले के भारत की कल्पना सिर्फ अबूझमाड़ पहुंच कर की जा सकती है। वहां के आदिवासी आज भी उसी युग में हैं। बारिश से मौसम भीग चुका था। हस्तशिल्प के कुछ नायाब नमूने देखने के बाद हम गांव की ओर चले, कुछ दूर गए तो हरे पत्तों के दोने में सल्फी बेचती आदिवासी महिलाएं दिखीं। बस्तर के हाट बाजर में मदिरा और सल्फी बेचने का काम आमतौर पर महिलाएं ही करती हैं। सल्फी उत्तर भारत के ताड़ी जैसा होता है पर छत्तीसगढ़ में इसे हर्बल बियर की मान्यता मिली हुई है। यह संपन्नता का भी प्रतीक है सल्फी के पेड़ों की संख्या देखकर विवाह भी तय होता है।


बस्तर क्षेत्र को दण्डकारण्य कहा जाता है। समता मूलक समाज की लड़ाई लड़ने वाले आधुनिक नक्सलियों तक ने अपने इस जोन का नाम दंडकारण्य जोन रखा है जिसके कमांडर अलग होते हैं। यह वही दंडकारणय है जहां कभी भगवान राम ने वनवास काटा था। वाल्मीकी रामायण के अनुसार भगवान राम ने वनवास का ज्यादातर समय यहां दण्डकारण्य वन में गुजारा था। इस दंडकारणय की खूबसूरती अद्भुत है। घने जंगलों में महुआ-कन्दमूल, फलफूल और लकड़ियां चुनती कमनीय आदिवासी बालाएं आज भी सल्फी पीकर मृदंग की ताल पर नृत्य करती नजर आ जाती हैं। यहीं पर घोटुल की मादक आवाजें सुनाई पड़ती हैं। असंख्य झरने, इठलाती बलखाती नदियां, जंगल से लदे पहाड़ और पहाड़ी से उतरती नदियां। कुटुम्बसर की रहस्यमयी गुफाएं और कभी सूरज का दर्शन न करने वाली अंधी मछलियां, यह इसी दण्डकारण्य में है।


शाम होते ही बस्तर से जगदलपुर पहुंच चुके थे क्योंकि रुकना ही डाकबंगले में था। जगदलपुर बस्तर का जिला मुख्यालय है जिसकी एक सीमा आंध्र प्रदेश से जुड़ी है तो दूसरी उड़ीसा से। यही वजह है कि यहां इडली डोसा भी मिलता है तो उड़ीसा की आदिवासी महिलाएं महुआ और सूखी मछलियां बेचती नजर आती हैं। जगदलपुर में एक नहीं कई डाकबंगले हैं। इनमें वन विभाग के डाकबंगले के सामने ही आदिवासी महिलाएं मछली, मुर्गे और तरह-तरह की सब्जियों का ढेर लगाए नजर आती हैं। बारिश होते ही उन्हें पास के बने शेड में शरण लेना पड़ता है। हम आगे बढ़े और जगदलपुर जेल के पास सर्किट हाउस पहुंचे। इस सर्किट हाउस में सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं आंध्र और उड़ीसा के नौकरशाहों और मंत्रियों का आना जाना लगा रहता है। कमरे में ठीक सामने खूबसूरत बगीचा है और बगल में एक बोर्ड लगा है जिसमें विशाखापट्नम से लेकर हैदराबाद की दूरी दर्शायी गई है। जगदलपुर अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक शासकवर्ग के लिए मौज-मस्ती की भी पसंदीदा जगह रही है। मासूम आदिवासियों का लंबे समय तक यहां के हुक्मरानों ने शोषण किया है इसी के चलते दूरदराज के डाकबंगलों के अनगिनत किस्से प्रचलित हैं। इन बंगलों के खानसामा भी काफी हुनरमंद हैं। पहले तो शिकार होता था पर अब जंगलों से लाए गए देसी बड़े मुर्गो को बाहर से आने वाले ज्यादा पसंद करते हैं। यह झाबुआ के मशहूर कड़कनाथ मुर्गे के समकक्ष माने जाते हैं।


सुबह तक बरसात जारी थी। पर जैसे ही आसमान खुला तो प्रमुख जलप्रपातों की तरफ हम चल पड़े। तीरथगढ़ जलप्रपात महुए के पेड़ों से घिरा है। सामने ही पर्यारण अनुकूल पर्यटन का बोर्ड भी लगा हुआ है। यहां पाल और दोने में भोजन परोसा जाता है तो पीने के लिए घड़े का ठंडा पानी है। जलप्रपात को देखने के लिए करीब सौ फिट नीचे उतरना पड़ा पर सामने नजर जाते ही हम हैरान रह गए। पहाड़ से लिपटती जैसे कोई नदी रुक कर आ रही हो। यह नजारा कोई भूल नहीं सकता। कुछ समय पहले एक उत्साही अफसर ने इस जलप्रपात की मार्केटिंग के लिए मुंबई की खूबसूरत माडलों की बिकनी में इस झरने के नीचे नहाने के दृश्यों की फिल्म बना दी। आदिवासी लड़कियों के वक्ष पर सिर्फ साड़ी लिपटी होती है जो उनकी परंपरागत पहचान है उन्हें देखकर किसी को झिझक नहीं हो सकती पर बिकनी की इन माडलों को देखकर कोई भी शरमा सकता है। जगदलपुर के पास दूसरा जलप्रपात है चित्रकोट जलप्रपात। इसे भारत की मिनी नियाग्रा वाटरफाल कहा जता है। बरसात में जब इंद्रावती नदी पूरे वेग में अर्ध चंद्राकार पहाड़ी से सैकड़ों फुट नीचे गिरती है तो उसका बिहंगम दृश्य देखते ही बनता है। जब तेज बारिश हो तो चित्रकोट जलप्रपात का दृश्य कोई भूल नहीं सकता। बरसात में इंद्रावती नदी का पानी पूरे शबाब पर होता है झरने की फुहार पास बने डाक बंगले के परिसर को भिगो देती है। बरसात में बस्तर को लेकर क िजब्बार ढाकाला ने लिखा है- वर्ष के प्रथम आगमन पर, साल वनों के जंगल में, उग आते हैं अनगिनत द्वीप, जिसे जोड़ने वाला पुल नहीं पुलिया नहीं, द्वीप जिसे जाने नाव नहीं पतवार नहीं।


बरसात में बस्तर कई द्वीपों मे बंट जता है पर जोड़े रहता है अपनी संस्कृति को, सभ्यता को और जीवनशैली को। बस्तर में अफ्रीका जैसे घने जंगल हैं, दुलर्भ पहाड़ी मैना है तो मशहूर जंगली भैसा भी हैं। कांगेर घाटी की कोटमसर गुफा आज भी रहस्यमयी नजर आती है। करीब तीस फुट संकरी सीढ़ी से उतरने के बाद हम उन अंधी मछलियों की टोह लेने पहुंचे जिन्होंने कभी रोशनी नहीं देखी थी। पर दिल्ली से साथ आई एक पत्रकार की सांस फूलने लगी और हमें फौरन ऊपर आना पड़ा बाद में पता चला उच्च रक्तचाप और दिल के मरीजों के अला सांस की समस्या जिन लोगों में हो उन्हें इस गुफा में नहीं जाना चाहिए क्योंकि गुफा में आक्सीजन की कमी है। गुफा से बाहर निकलते ही हम कांगेर घाटी के घने जंगलों में वापस लौट आए था।


दोपहर से बरसात शुरू हुई तो शाम तक रुकने का नाम नहीं लिया। हमें जाना था दंतेवाड़ा में दंतेश्वरी देवी का मंदिर देखने। छत्तीसगढ़ की एक और विशेषता है। यह देवियों की भूमि है। केरल को देवो का देश कहा जाता है तो छत्तीसगढ़ के लिए यह उपमा उपयुक्त है क्योंकि यहीं पर बमलेश्वरी देवी, दंतेश्वरी देवी और महामाया देवी के ऐतिहासिक मंदिर हैं। उधर जंगल, पहाड़ और नदियां हैं तो यहां की जमीन के गर्भ में हीरा और यूरेनियम भी है।
दांतेवाड़ा जाने का कार्यक्रम बारिश की जह से रद्द करना पड़ा और हम बस्तर के राजमहल परिसर चले गए। बस्तर की महारानी एक घरेलू महिला की तरह अपना जीवन बिताती हैं। उनका पुत्र रायपुर में राजे-रजवाड़ों के परंपरागत स्कूल(राजकुमार कॉलेज) में पढ़ता है। बस्तर के आदिवासियों में उस राजघराने का बहुत महत्व है और ऐतिहासिक दशहरे में राजपरिवार ही समारोह का शुभारंभ करता है। इस राजघराने में संघर्ष का अलग इतिहास है जो आदिवासियों के लिए उसके पूर्व महाराज ने किया था। दंतेवाड़ा जाने के लिए दूसरे दिन सुबह का कार्यक्रम तय किया गया। रात में एक पत्रकार मित्र ने पास के गांव में बने एक डाक बंगले में भोजन पर बुलाया। हमारी उत्सुकता बस्तर के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करने की थी। साथ ही आदिवासियों से सीधे बातचीत कर उनके हालात का जायजा लेना था। यह जगह डाक बंगले के परिसर में कुछ अलग कटहल के पुराने पेड़ के नीचे थी।


आदिवासियों के भोजन बनाने का परंपरागत तरीका देखना चाहता था। इसी जगह से हमने सर्किट हाउस छोड़ गांव में बने इस पुराने डाक बंगले में रात गुजरने का फैसला किया। अंग्रेजों के समय से ही डाक बंगले का बार्चीखाना कुछ दूरी पर और काफी बनाया जता रहा है। लकड़ी से जलने वाले बड़े चूल्हे पर दो पतीलों में एक साथ भोजन तैयार होता है। साथ ही आदिवासियों द्वारा तैयार महुआ की मदिरा सल्फी के बारे में जनना चाहते थे। आदिवासी महुआ और चाल से तैयार मदिरा का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। साथ बैठे एक पत्रकार ने बताया कि पहली धार की महुआ की मदिरा किसी महंगे स्काच से कम नहीं होती है। दो पत्तों के दोनों में सल्फी और महुआ की मदिरा पीते मैंने पहली बार देखा। गांव का आदिवासी खानसामा पतीलों में दालचीनी, बड़ी इलायची, काली मिर्च, छोटी इलाइची, तेजपान जैसे कई मामले सीधे भून रहा था। मुझे हैरानी हुई कि यह बिना तेल-घी के कैसे खड़े मसाले भून रहा है तो उसका जब था यहां देसी मुर्गे बनाने के लिए पहले सारे मसाले भून कर तैयार किए जते हैं फिर बाकी तैयारी होती है। बारिश बंद हो चुकी थी इसलिए हम सब किचन से निकल कर बाहर पेड़ के नीचे बैठ गए। जगदलपुर के पत्रकार मित्रों ने आदिवासियों के रहन-सहन, शिकार और उनके विवाह के तौर तरीकों के बारे में रोचक जानकारियां दी। पहली बार बस्तर आए पत्रकार मित्र के लिए समूचा माहौल सम्मोहित करने वाला था। दूर तक फैले जंगल के बीच इस तरह की रात निराली थी।

शाम होते-होते हम केशकाल घाटी से आगे जा चुके थे। केशकाल की घाटी देखकर साथी पत्रकार को पौड़ी की पहाड़ियां याद आ रही थीं। पर यहां न तो चीड़ था और न देवदार के जंगल। यहां तो साल के जंगलों के टापू थे। एक टापू जाता था तो दूसरा आ जता था। बस्तर की पहली यात्रा काफी रोमांचक थी। ऐसे घने जंगल हमने पहले कभी नहीं देखे थे। आदिवासी हाट बाजरों में शोख चटख रंग में कपड़े पहने युतियां और बुजुर्ग महिलाएं सामान बेचती नजर आती थीं। पहली बार हम सिर्फ जनकारी के मकसद से बस्तर गए थे पर दूसरी बार पत्रकार के रूप में। इस बार जब दिनभर घूम कर खबर भेजने के लिए इंटरनेट ढूंढना शुरू किया तो आधा शहर खंगाल डाला पर कोई साइबर कैफे नहीं मिला। सहयोगी पत्रकार का रक्तचाप बढ़ रहा था और उन्हें लग रहा था कि खबर शायद जा ही न पाए और पिछले दो दिन की तरह आज भी कोई स्टोरी छप पाए। खैर, एक साइबर कैफे भी तो उसमें उनका इमेल खुलने का नाम न ले। अंत में मेरे याहू आईडी से बस्तर की खबर उन्होंने भेजी और हजार बार किस्मत को कोसा। खबर भेजने के बाद हम मानसिक दबाव से मुक्त हुए और जगदलपुर के हस्तशिल्प को देखने निकले। आदिवासियों के बारे में काफी जनकारी ली और दिन भर घूम कर हम फिर दूसरे डाक बंगले में बैठे। कुछ पत्रकार भी आ गए थे और फिर देर रात तक हम जगदलपुर की सड़कों पर टहलते रहे।

इस बार तीरथगढ़ जलप्रपात देखने गए तो जमीन पर महुए के गुलाबी फूल बिखरे हुए थे। उनकी मादक खुशबू से पूरा इलाका गमक रहा था। महुआ का फूल देखा और यह क्या होता है जानने का प्रयास किया। वे महुए की दोनों में बिकती मदिरा भी चखना चाहतीं पर वह दोनों हाइजनिक नहीं लगा इसलिए छोड़ दिया। एक गांव पहुंचे तो आदिवासियों के घोटूल के बारे में जानकारी ली। घोटूल अब बहुत कम होता है। विवाह संबंध बनाने के रीति-रिवाज भी अजीबो गरीब हैं। आदिवासी यु्वक को यदि युवती से प्यार हो जए तो वह उसे कंघा भेंट करता है और यदि युवती उसे बालों में लगा ले तो फिर यह माना जता है कि युवती को युवक का प्रस्ताव मंजूर है। फिर उसका विवाह उसी से होना तय हो जता है। बस्तर का पूरा इलाका देखने के लिए कम से कम हफ्ते भर का समय चाहिए। पर समय की कमी की वजह से हमने टुकड़ों-टुकड़ों में इस आदिवासी अंचल को देखा पर पूरा नहीं देख पाया हूं।


(अंबरीश कुमार इंडियन एक्स्प्रेस ग्रुप के वरिष्ठ पत्रकार हैं और सालों छत्तीसगढ़ में गुजार चुके हैं।)